Book Title: Bauddha Dharm me Samajik Chetna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 5
________________ १५० वैयक्तिक स्वार्थों को त्यागना ही होगा। इसी प्रकार राष्ट्र की सेवा के लिए पारिवारिक और जातीय स्वार्थों को छोड़ना ही होगा। यही नहीं, यदि हम समग्र मानव जाति या प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं तो राष्ट्रीयता के क्षुद्र घेरे से भी ऊपर उठना होगा। इस विश्लेषण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि बौद्ध परम्परा में जो राग और तृष्णा के प्रहाण की बात की गयी है वह सामाजिक चेतना के विकास में बाधक नहीं अपितु साधक है। हमारे सामाजिक सम्बन्धों का आधार राग नहीं, अपितु विवेक का तत्त्व होना चाहिए। कर्तव्यबोध की भावना ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारी सामाजिक चेतना का आधार बन सकता है। राग की भाषा मेरेपन की भाषा है, अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा कर्तव्यबोध की भाषा है। जहां केवल अधिकारों की बात होती है वहां केवल विकत सामाजिकता पनपती है। राग के आधार पर जो भी सामाजिक चेतना निर्मित होगी वह अनिवार्य रूप से वर्ग भेद और वर्ण भेद को जन्म देगी। बौद्धधर्म में जिस सामाजिक चेतना के निर्माण की बात कही गयी है वह सामाजिक चेतना प्रज्ञा और सार्वभौम करुणा के आधार पर फलित होती है। उसमें मेरे और तेरे या अपने या पराये की चेतना ही समाप्त हो जाती है। परम प्रज्ञा से जो करुणा निःसृत होती है, वह सीमित नहीं होती है, वह अनन्त होती है, वह किसी एक पर नहीं, अपितु सभी पर होती है। संन्यास और समाज-सेवा सामान्यतया संन्यास की अवधारणा को भी सामाजिकता का विरोधी माना जाता है। बौद्धधर्म निश्चय ही एक संन्यासमार्गी परम्परा का धर्म है। यह भी सही है कि संन्यासी घर, परिवार और समाज से अपना सम्बन्ध तोड़ लेता है तथा धन, सम्पत्ति का भी परित्याग कर देता है। मात्र यही नहीं, एक सच्चा संन्यासी तो लोकेषणा का भी त्याग कर देता है, किन्तु धन, सम्पदा, परिवार और लोकेषणा का त्याग, समाज का परित्याग नहीं है, वस्तुत: यह त्याग स्वार्थवृत्ति का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है। संन्यासी का यह संकल्प उसे समाज विमुख नहीं बनाता है अपितु समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका में अधिष्ठित करता है। क्योंकि सच्चा समाज कल्याण नि:स्वार्थता और विराग की भूमि पर अधिष्ठित होकर ही किया जा सकता है। अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्रित व्यक्तियों का समूह समाज नहीं होता और ऐसे स्वार्थी और वासनालोलुप व्यक्तियों तथाकथित सेवा का कार्य समाज-सेवा की कोटि में नहीं आता है। समाज उन लोगों का समूह होता है जो अपने वैयक्तिक और पारिवारिक हितों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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