Book Title: Bauddha Dharm me Samajik Chetna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ १५४ 'यदि दूंगा तो मैं क्या खाऊंगा' यह विचार पिशाचवृत्ति है। अपने खाने को दूसरे की अपेक्षा पराये के लिए देने की भावना रखना ही देवराजता है। आत्मार्थं पीडयित्वान्यं नरकादिषु पच्यते । आत्मानं पीडयित्वा तु परार्थं सर्वसंपदः || बोधि० ८ / १२६ अपने लिए दूसरे को पीड़ा देकर (मनुष्य को ) नरक आदि में पकना पड़ता है। पर दूसरे के लिए स्वयं क्लेश उठाने से ( मनुष्य को ) सब सम्पत्तियां मिलती हैं। दुर्गतिर्नीचता मोख्यं ययैवात्मोन्नतीच्छया । तामेवान्यत्र संक्राम्य सुगतिः सत्कृतिर्मतिः । बोधि० ८ / १२७ अपने प्रकर्ष की जिस इच्छा से दुर्गति, परवशता और मूर्खता मिलती है, उसी (इच्छा) का दूसरों के हित में संक्रमण करने से सुगति, सत्कार और प्रज्ञा मिलती है। आत्मार्थं परमाज्ञाप्य दासत्वायद्यनुभूयते । परार्थं त्वेनमाज्ञाप्य स्वामित्वाद्यनुभूयते || बोधि० ८ / १२८ अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को आज्ञा देकर, उस कर्म के परिणाम स्वरूप दासता आदि का अनुभव करना पड़ता है। किन्तु दूसरे के हित के लिए अपने को आज्ञा देकर उस कर्म के फलस्वरूप प्रभुता आदि का अनुभव करने को मिलता है। ये केचिद् दुःखिता लोके सर्वे ते स्वसुखेच्छया । ये केचित् सुखिता लोके सर्वे तेऽन्यसुखेच्छया ।। बोधि० ८ / १२९ संसार में जो कोई दुःखी हैं, वे सब अपनी सुखेच्छा के कारण। संसार में जो कोई सुखी हैं, वे परकीय सुखेच्छा के कारण हैं। इस समग्र चिन्तन में यह फलित होता है कि बौद्धधर्म में लोकमंगल की उदात्त भावना भगवान बुद्ध से लेकर परवर्ती आचार्यों में भी यथावत कायम रही है | भगवान बुद्ध ने जो 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' का उद्घोष किया था वह बौद्ध धर्म दर्शन का मुख्य अधिष्ठान है। ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शान्तिदेव के 'शिक्षासमुच्चय' नामक ग्रन्थ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियां मननीय हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10