Book Title: Bauddha Dharm me Samajik Chetna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 2
________________ बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना : १४७ में मुख्यतः सामाजिक जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गया है। बौद्धधर्म की पंचशील की अवधारणा में वस्तुतः उन दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का प्रयत्न किया गया है जो हमारे सामाजिक सम्बन्धों को विकृत करती थीं। पंचशीलों के माध्यम से उसमें जो हिंसा, असत्यभाषण, चौर्यकर्म, व्यभिचार और मादक द्रव्यों के सेवन से दूर रहने की बात कही गयी है उसका मुख्य आधार हमारी सामाजिक चेतना ही है। हिंसा का अर्थ है दूसरे प्राणियों को कष्ट देना, उनके हितों की उपेक्षा करना, इसी प्रकार असत्य भाषण का तात्पर्य दूसरों को गलत जानकारी देना या उनके साथ कपटपूर्ण व्यवहार करना। चोरी का अर्थ है, दूसरों की सम्पत्ति का अपहरण या शोषण करना। इसी प्रकार व्यभिचार का मतलब है सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बन्ध स्थापित करना और सदाचार के मूल्यों की अवहेलना कर सामाजिक सम्बन्धों को विषाक्त एवं अस्थिर बनाना। इसी प्रकार मादक द्रव्यों का सेवन भी सामाजिक चेतना और दायित्वबोध की उपेक्षा का ही कारण कहा जा सकता है। यदि हम गहराई से विचार करें तो सामाजिक जीवन के अभाव में इन पंचशीलों का कोई अर्थ और संदर्भ ही नहीं रह जाता। पंचशील के रूप में जो मर्यादाऍ बौद्ध धर्म के द्वारा प्रस्तुत की गयी हैं, उनका मुख्य सम्बन्ध हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि से ही है। बौद्ध साहित्य में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं, जो व्यक्ति को उसके सामाजिक सम्बन्धों और दायित्वों का बोध कराते हैं, जिनकी चर्चा हम इसी आलेख के अन्त में कर रहे हैं। संघ की सर्वोपरिता श्रमण परम्परा में और विशेष रूप से बौद्धधर्म में धर्मसंघ की स्थापना का जो प्रयत्न हुआ वह वस्तुतः इस बात का सूचक है कि बौद्ध धर्म में उसके प्रारम्भिक काल से ही सामाजिक चेतना उपस्थित थी । सामूहिक साधना या संघीय जीवनशैली बौद्ध धर्म की विशिष्ट देन हैं। बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक संघीय - जीवन और संघ की महत्ता को स्वीकार किया। अपने परिनिर्वाण के अवसर पर भी उन्होंने अपने स्थान पर किसी भिक्षु को स्थापित न करके यही कहा कि मेरे पश्चात् संघ ही भिक्षु भिक्षुणी वर्ग का अनुशास्ता होगा। जो लोग बौद्धधर्म को श्रमण या संन्यासमार्गीय परम्परा का धर्म होने के कारण यह कहते हैं कि उसमें सामाजिक चेतना का अभाव है वे वस्तुतः बौद्धधर्म की इस सामाजिक प्रकृति से सर्वथा अनभिज्ञ हैं । बौद्धधर्म में सदैव ही संघ की महत्ता और गरिमा का गुणगान किया गया और साधनामय जीवन में सहवर्गीय भिक्षु और प्राणियों की सेवा को साधना का उच्च आदर्श माना गया। समस्त आचार नियमों का मूल स्रोत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education InternationalPage Navigation
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