Book Title: Bandhashataka Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Prashamrativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna
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॥ बन्धशतकप्रकरणम् ॥
जयत्यभिप्रेतसमृद्धिहेतुः शमी समाधिक्षतकर्मबीजः । सुरेन्द्रवन्धः स्फुटवस्तुवादी मुनीश्वरः श्रीजिनवर्द्धमानः ॥१॥ मतिसरितां जलनिधयो निखिलविनिर्दिष्टकर्मपरिणतयः । श्रुतसागरपारदृशो जयन्ति गणधारिणः सर्वे ॥२॥ एकैकमपि श्रुत्वा वाक्यं यस्यास्तकर्ममलपटलैः । शिवपदमनन्तजीवैर्लेभे तज्जयति जिनवचनम् ॥३॥
इहानन्तभवभ्रमणनिबन्धनमहामोहसन्ततिसलिलगहने विविधाधिव्याधिनकचक्रातिरौद्रे जातिजरामरणप्रबन्धमहोमिभीमे गम्भीरापारसंसारवारान्निधौ निमज्जता पुरुषेण प्रवणं यानपात्रमिव संप्राप्य श्रीसर्वज्ञधर्मान्वितं मनुष्यजन्म परोपकारे यतितव्यम् । तस्यैव सकलधर्मसारत्वेन यथोक्तमनुष्यजन्मफलत्वात्, उक्तं च
सक्षेपात्कथ्यते धर्मो, जनाः किं विस्तरेण नः । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥१॥
स चोपकारः परमार्थतो जिनवचनोपदेश एव, तस्यैवानन्तभवोपचितक्लेशविच्छेदहेतुत्वादिति जिनवचनोपदेशेनैवोपकर्त्तव्याः प्राणिनः । स च जिनवचनोपदेशो यद्यप्युपदेष्टव्यभेदादनेकधा, तथापि कर्मणः सकलदुःखमूलत्वा

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