Book Title: Balbodh 1 2 3
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ पाठ दूसरा | पंच परमेष्ठी णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।। यह पंच नमस्कार मंत्र है। इसमें सबसे पहिले पूर्ण वीतरागी और पूर्ण ज्ञानी अरहत भगवानों को और सिद्ध भगवानों को नमस्कार किया गया है। उसके बाद वीतराग मार्ग में चलने वाले मुनिराजों को नमस्कार किया गया है जिनमें आचार्य, मुनिराज, उपाध्याय मुनिराज और सामान्य मुनिराज सब आ जाते हैं। ___अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनको पंच परमेष्ठी कहते हैं। अरहंतादिक परमपद है और जो परमपद में स्थित हों, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। पाँच प्रकार के होने से उन्हें पंच परमेष्ठी कहते हैं। अरहंत जो गृहस्थपना त्यागकर, मुनिधर्म अंगीकार कर, निज स्वभाव साधन द्वारा चार घाति कर्मों का क्षय करके अनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य) रूप विराजमान हुए वे अरहंत हैं। शास्त्रों में अरहंत के ४६ गुणों (विशेषणों) का वर्णन है। उसमें कुछ विशेषण तो शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और कुछ आत्मा से। ४६ (छयालीस) गुणों में १० तो जन्म के अतिशय हैं, जो शरीर सं संबंध रखते हैं। १० केवलज्ञान के अतिशय हैं, वे भी बाह्य पुण्य सामग्री से संबंधित हैं तथा १४ देवकृत अतिशय तो स्पष्ट देवों द्वारा किए हुए हैं ही। ये सब तीर्थंकर अरहंतों के ही होते हैं, सब अरहंतों के नहीं। आठ प्रातिहार्य भी बाह्य विभूति हैं। किन्तु अनन्त चतुष्टय आत्मा से संबंध रखते हैं, अत: वे प्रत्येक अरहंत के होते हैं। अत: निश्चय से वे ही अरहंत के गुण हैं। सिद्ध जो गृहस्था अवस्था का त्यागकर, मुनिधर्म साधना द्वारा चार घाति कमों का नाश होने पर अनंत चतुष्टय प्रकट करके कुछ समय बाद अघाति कर्मों के नाश ाहने पर समस्त अनय द्रव्यों का संबंध छूट जाने पर पूर्ण मुक्त हो गये है; लोक के अग्रभाग में किंचित् न्यून पुरुषाकार विराजमान हो गये हैं, जिनके द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का अभाव होने से समस्त आत्मिक गुण प्रकट हो गये हैं; वे सिद्ध हैं। उनके आठ गुण कहे गये हैं - समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना । सूक्ष्मी वीरजवान, निराबाध गुण सिद्ध के।। १. क्षायिक सम्यक्त्व ३. अनंत ज्ञान ५. अवगाहनत्व ७. अनंतवीर्य २. अनंत दर्शन ४. अगुरुलघुत्व ६. सूक्ष्मत्व ८.अव्याबाध आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का सामान्य स्वरूप आचार्य, उपाध्याय और साधु सामान्य से साधुओं में ही आ जाते हैं। जो विरागी होकर, समस्त परिग्रह का त्याग करके, शुद्धोपयोग रूप मुनि धर्म अंगीकार करके अंतरंग में शुद्धोपयोग द्वारा अपने को आपरूप अनुभव करते हैं; अपने उपयोग को बहुत नहीं भ्रमाते हैं, जिनके कदाचित् मंदराग के उदय में शुभोपयोग भी होता है, परन्तु उसे भी हेय मानते हैं, तीव्र कषाय का अभाव होने से अशुभोपयोग का तो अस्तित्व ही नहीं रहता है - ऐसे मुनिराज ही सच्चे साधु हैं।

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