Book Title: Balbodh 1 2 3
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ पाठ आठवाँ | | जिनवाणी स्तुति ऐसी पवित्र जिनवाणी-रूपी गंगा को मैं अपनी बुद्धि और शक्ति अनुसार अञ्जलि में धारण करके शीश पर धारण करता हूँ।।१।। इस संसाररूपी मंदिर में अज्ञानरूपी घोर अंधकार छाया हुआ है। यदि उस अज्ञानांधकार को नष्ट करने के लिए जिनवाणी रूपी दीपशिखा नहीं होती तो फिर तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप किस प्रकार जाना जाता? वस्तुस्वरूप अविचारित ही रह जाता। अत: संत कवि कहते हैं कि जिनवाणी बड़ी ही उपकार करने वाली है, जिसकी कृपा से हम तत्त्व का सही स्वरूप समझ सके।।२।। मैं उस जिनवाणी को बारम्बार नमस्कार करता हूँ। प्रश्न - 1. जिनवाणी स्तुति की कोई चार पंक्तियाँ अर्थ सहित लिखिये। वीर हिमाचल” निकसी, गुरु गौतम के मुख कुंड ढरी है। मोह महाचल भेद चली, जग की जड़तातप दूर करी है।। ज्ञान पयोनिधि माँहि रली, बहु भंग तरंगनिसों उछरी है। ता शुचि शारद गंग नदी प्रति, मैं अंजुलि कर शीश धरी है।।१।। या जगमंदिर में अनिवार, अज्ञान अंधेर छयो अति भारी। श्री जिन की धुनि दीपशिखा सम, जो नहिं होत प्रकाशन-हारी / / तो किस भांति पदारथ पांति, कहाँ लहते रहते-अविचारी। या विधि संत कहें धनि हैं, धनि हैं जिन वैन बड़े उपकारी / / 2 / / यह जिनवाणी की स्तुति है। इसमें दीपशिखा के समान अज्ञानांधकार को नाश करने वाली पवित्र जिनवाणी-रूपी गंगा को नमस्कार किया गया है। जिनवाणी अर्थात् जिनेन्द्र भगवान द्वारा दिया गया तत्त्वोपदेश, उनके द्वारा बताया गया मुक्ति का मार्ग। हे जिनवाणी-रूपी पवित्र गंगा ! तुम महावीर भगवान रूपी हिमालय पर्वत से प्रवाहित होकर गौतमगणधर के मुखरूपी कुण्ड में आई हो। तुम मोहरूपी महान् पर्वतों को भेदती हुई जगत् के अज्ञान और ताप (दु:खों) को दूर कर रही हो। सप्तभंगी रूप नयों की तरंगों से उल्लसित होती हुई ज्ञानरूपी समुद्र में मिल गई हो।

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43