Book Title: Ayurved Sahitya ke Jain Manishi
Author(s): Harichandra Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 1
________________ आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी ( प्रारम्भ से २०बीं शती तक ) हरिश्चन्द्र जैन भारतवर्ष में चिकित्सा शास्त्र से संबंधित विषय आयुर्वेद है । जैन परम्परा के अनुसार इसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव के समय से होता है, क्योंकि भगवान् ऋषभदेव ने इस देश के लोगों को जीवन-यापन के जिन साधनों का ज्ञान प्रदान किया था, उसमें रोगों से जीवन की रक्षा करना भी सम्मिलित था । अतः आयुर्वेद का प्रारम्भ उन्हीं के समय में हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है। साधना के लिए जीवन एवं स्वास्थ्य रक्षण आवश्यक था । रोगों से बचने का उपाय आयुर्वेद कहलाता है । इस विषय पर चाहे उस समय तक स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं लिखे गये हों, किन्तु जब ज्ञान को लिपिबद्ध करने की परम्परा चली, तो आयुर्वेद पर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये, अन्य ग्रन्थों में प्रसंगवश आयुर्वेद का वर्णन हुआ आज भी प्राप्त है। आगम के अनुसार चौदहवें प्राणवाद नामक पूर्व में आयुर्वेद आठ प्रकार का है, ऐसा संकेत मिलता है। जिसका तात्पर्य अष्टाङ्ग आयुर्वेदसे है । गोमटसार, जिसकी रचना १हजार वर्ष पूर्व हुई है, में भी ऐसा संकेत है । इसी प्रकार श्वेताम्बर आगमों यथा-अंग-उपांग, मूल-छेद आदि में यत्र तत्र आयुर्वेद के अंश उपलब्ध होते हैं। भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५९९वर्ष पूर्व हुआ था, उनके शिष्य गणधर कहलाते थे उन्हें अन्य शास्त्रों के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान था । दिगम्बर परम्परा के अनुसार आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतवलि ने षटखंडागम नामक ग्रन्थ की रचना की है। दिगम्बर परम्परा में इससे पूर्व का जैन साहित्य उपलब्ध नहीं है । भगवान् महावीर के पूर्व आयुर्वेद साहित्य के जैनमनीषी अवश्य थे, किन्तु उनका कोई व्यवस्थित विवरण नहीं मिलता है । भगवान् महावीर के उपरान्त अनेक जैन आचार्य हुये हैं, उनमें से अनेक आयुर्वेद विद्या के मनीषी थे। जैन ग्रन्थों में आयुर्वेद का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, किन्तु इसकी गणना पापश्रतों में की है, यह एक आश्चर्य है । स्थानांग सूत्र में आयुर्वेद के आठ अंगों का नामोल्लेख आज भी प्राप्त होता है। आचारांग सूत्र में १६ रोगों का नामोल्लेख उपलब्ध है । इनकी समानता वैदिक आयुर्वेद ग्रन्थों में देखी जा सकती है। स्थानांग सूत्र में गगोत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है और रोगोत्पत्ति के ९ कारण बताये गये हैं। जैन मनीषी धर्मसाधन के लिए शरीर रक्षा को बहुत महत्त्व देते थे। बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में कहा है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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