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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी ( प्रारम्भ से २०बीं शती तक )
हरिश्चन्द्र जैन
भारतवर्ष में चिकित्सा शास्त्र से संबंधित विषय आयुर्वेद है । जैन परम्परा के अनुसार इसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव के समय से होता है, क्योंकि भगवान् ऋषभदेव ने इस देश के लोगों को जीवन-यापन के जिन साधनों का ज्ञान प्रदान किया था, उसमें रोगों से जीवन की रक्षा करना भी सम्मिलित था । अतः आयुर्वेद का प्रारम्भ उन्हीं के समय में हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है।
साधना के लिए जीवन एवं स्वास्थ्य रक्षण आवश्यक था । रोगों से बचने का उपाय आयुर्वेद कहलाता है । इस विषय पर चाहे उस समय तक स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं लिखे गये हों, किन्तु जब ज्ञान को लिपिबद्ध करने की परम्परा चली, तो आयुर्वेद पर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये, अन्य ग्रन्थों में प्रसंगवश आयुर्वेद का वर्णन हुआ आज भी प्राप्त है।
आगम के अनुसार चौदहवें प्राणवाद नामक पूर्व में आयुर्वेद आठ प्रकार का है, ऐसा संकेत मिलता है। जिसका तात्पर्य अष्टाङ्ग आयुर्वेदसे है । गोमटसार, जिसकी रचना १हजार वर्ष पूर्व हुई है, में भी ऐसा संकेत है । इसी प्रकार श्वेताम्बर आगमों यथा-अंग-उपांग, मूल-छेद आदि में यत्र तत्र आयुर्वेद के अंश उपलब्ध होते हैं।
भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५९९वर्ष पूर्व हुआ था, उनके शिष्य गणधर कहलाते थे उन्हें अन्य शास्त्रों के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान था । दिगम्बर परम्परा के अनुसार आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतवलि ने षटखंडागम नामक ग्रन्थ की रचना की है। दिगम्बर परम्परा में इससे पूर्व का जैन साहित्य उपलब्ध नहीं है । भगवान् महावीर के पूर्व आयुर्वेद साहित्य के जैनमनीषी अवश्य थे, किन्तु उनका कोई व्यवस्थित विवरण नहीं मिलता है । भगवान् महावीर के उपरान्त अनेक जैन आचार्य हुये हैं, उनमें से अनेक आयुर्वेद विद्या के मनीषी थे। जैन ग्रन्थों में आयुर्वेद का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, किन्तु इसकी गणना पापश्रतों में की है, यह एक आश्चर्य है । स्थानांग सूत्र में आयुर्वेद के आठ अंगों का नामोल्लेख आज भी प्राप्त होता है। आचारांग सूत्र में १६ रोगों का नामोल्लेख उपलब्ध है । इनकी समानता वैदिक आयुर्वेद ग्रन्थों में देखी जा सकती है।
स्थानांग सूत्र में गगोत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है और रोगोत्पत्ति के ९ कारण बताये गये हैं। जैन मनीषी धर्मसाधन के लिए शरीर रक्षा को बहुत महत्त्व देते थे। बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में कहा है :
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अर्थात् जैसे पर्वत से जल प्रवाहित होता है वैसे ही शरीर से धर्म प्रवाहित होता है । अतएव धर्मयुक्त शरीर की यत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिये ।
आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषा
शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्रवते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥
शरीर रक्षा में सावधान जैन साधु भी कदाचित् रोगग्रस्त हो जाते थे । वे व्याधियों के उपचार की विधिवत् कला जानते थे ।
निशीथचूर्णी में वैद्यकशास्त्र के पंडितों को दृष्टपाठी कहा है । जैन ग्रन्थों में अनेक ऐसे वैद्यों का वर्णन मिलता है, जो कायचिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा में अति निपुण होते थे । वे युद्ध में जाकर शल्य चिकित्सा करते थे, ऐसा वर्णन प्राप्त होता है । आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी - साधु एवं गृहस्थ दोनों वर्गों के थे ।
हरिणेगमेषी द्वारा महावीर के गर्भ का साहरण चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से एक अपूर्व तथा विचारणीय घटना है । आचार्य पद्मनंदी ने अपनी पंचविशतिका में श्रावक को मुनियों के लिये औषध - दान देने की चर्चा की है इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि श्रावक जैन धर्म की समस्त दृष्टियों के अनुकूल औषध व्यवस्था करते थे । इस सम्बन्ध में जैन आयुर्वेद साहित्य के मनीषी विद्वान ही उनके परामर्श दाता होते थे ।
यहाँ आयुर्वेद साहित्य के जैनी मनीषी विद्वानों की परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचन करना आवश्यक है।
इस ऐतिहासिक परम्परा का वैदिक आयुर्वेद साहित्य से कोई मतभेद नहीं है । भगवान आदिनाथ से भगवान महावीर स्वामी तक के आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषियों का कोई लिखित साहित्य नहीं है, किन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के उपरान्त जब से शास्त्र लिखने की परम्परा प्रारम्भ हुई, उसके बाद जो आचार्य हुये उन्होंने जो आयुर्वेद साहित्य लिखा है, उसका विवरण अवश्य आज भी प्राप्त है, और इनमें अधिकांश का नामोल्लेख शास्त्रों में विकीर्ण मिलता है ।
आचार्य नाम
मुझे अब तक आयुर्वेद साहित्य के जिन जैन मनीषियों का नाम, उनके द्वारा लिखित कृति तथा काल का ज्ञान हुआ है, उसे मैं नीचे एक सूची के द्वारा व्यक्त कर रहा हूँ; जिससे सम्पूर्ण जैन आचार्यों का एक साथ ज्ञान हो सके :
ग्रन्थ
१- श्रुतकीर्ति २- कुमारसेन ३- वीरसेन
२३९
४- पूज्यपाद पात्रस्वामी ५ - सिद्धसेन दशरथ गुरु ६- मेघपाद
वैद्यामृत
काल
१२वीं० श०
विषय
विष एवं ग्रह
शालाक्यतंत्र
बालरोग
बालरोग
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आचार्य नाम ७ - सिंहपाद
८- समन्तभद्र
९- जटाचार्य
१०- उग्रादित्य
११ - वसवराज
१२ - गोमम्टदेवमुनि १३- सिद्धनागार्जुन १४ - कीर्तिवर्म
२३- पूज्यपाद २४ - आशाधर वैद्य
२५- सोमनाथ
२६ - नित्यनाथ सिद्ध
२७- दामोदर भट्ट
२८ - धन्वन्तरी
२९- नागराज
३० - कविपार्श्व
ग्रन्थ
३१ - रामचन्द्र
३२- दीपचन्द्र ३३- लक्ष्मीवल्लभ
हरिश्चन्द्र जैन
(१) पुष्पायुर्वेद
(२) सिद्धान्त रसायन कल्प
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१५- मंगराज १६–अभिनवचन्द्र
शास्त्र द्वय
१७ - देवेन्द्रमुनि
बाल ग्रह- चिकित्सा
१८ - अमृतनंदी
वैद्यक निघंटु
१९-जगदेवमहापंचपाद श्रीधरदेव वैद्यामृत
२०- सालव,
रसरत्नाकर वैद्य सांगत्य
२१ - हर्षकीर्ति सूरि
योगचिन्तामणि
२२ - जैन सिद्धान्त भवन आरा वैद्यसार संग्रह आरोग्य चिन्तामणी
में उपलब्ध अनाम
अकलंक संहिता, इन्द्रनंदीसंहिता
अष्टांगहृदयीका
कल्याणकारक (कन्नड़)
रसरत्नाकर
आरोग्यचिन्तामणी (कन्नड़) धन्वन्तरी निघंटुकोश
कल्याणकारक
मेरुस्तम्भ
नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट गौ वैद्य
खगेन्द्रमणी दर्पण
योगशतक
कविप्रमोद
वैद्यविनोद
काल
बालतंत्र भाषावचनिका लंघन पथ्य निर्णय काल ज्ञान
१०वीं० श०
९वीं० श०
आरोग्य चिन्तामणी
१३वीं० श०
१४वीं० श०
वि० सं० १७४३
वि० सं० १८१०
विषय
बाजीकरण एवं रसायन
वि० सं० १९३६ १८वीं श०
रसायन
चिकित्सा
औषध प्रयोग
रसायन
रसशास्त्र
संग्रह कौमारऋत्य
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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी
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आचार्य नाम
ग्रन्थ काल
विषय ३४-दरवेश हकीम
प्राणसुख
वि० सं० १८०६ ३५-मुनि यशकीर्ति जगसुन्दरी प्रयोगशाला ३६-देवचन्द्र मुष्टिज्ञान
ज्योतिष एवं वैद्यक ३७-नयनसुख
नैद्यक मनोत्सव, सन्तानविधि
सन्निपात कलिका, सालोन्तर रास ३८-कृष्णदास
__ गंधक कल्प ३९-जनार्दन गोस्वामी बालविवेक, वैद्यरत्न १८वीं० वि० सं० ४०-जोगीदास
सुजानसिंह रासो वि० सं० १७६१ ४१-लक्ष्मीचन्द्र ४२-समरथ सूरी
रसमंजरी
वि० सं० १७६४ ऊपर लिखित तालिका में मैंने आयुर्वेद के जैन मनीषियों का नामोल्लेख किया है जिन्होंने आयुर्वेद साहित्य का प्रणयन प्रधान रूप से किया है। साथ ही वे चिकित्सा कार्य में भी निपुण थे। किन्तु प्राचीन जैन साहित्य के इतिहास का परिशीलन करने पर ज्ञात होता है कि बहुत विद्वान् आचार्य एक से अधिक विषय के ज्ञाता होते थे। आयुर्वेद के मनीषी इस नियम से मुक्त नहीं थे। वे भी साहित्य, दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, मंत्र, रसतन्त्र आदि के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान रखते थे। आयुर्वेद के महान शल्यविद् आचार्य सुश्रुत ने कहा है
एक शास्त्रमधीयानो न विद्याद् शास्त्र निश्चियम् ।
तस्माद् बहुश्रुतः स्यात् विष्नानीया चिकित्सकः ॥
कोई भी व्यक्ति एक शास्त्र का अध्ययन कर शास्त्र का पूर्ण विद्वान् नहीं हो सकता है। अतः चिकित्सक बनने के लिए बहुश्रुत होना आवश्यक है।
यहाँ मैं कुछ ऐसे आयुर्वेद के जैन मनीषियों की गणना कराऊँगा, जिनके साहित्य में आयुर्वेद विकीर्ण रूप से प्राप्त है-पूज्यपाद या देवनन्दी, महाकवि धनंजय, आचार्य गुणभद्र, सोमदेव, हरिश्चन्द्र, वाग्भट्ट, शुभचंद्र, हेमचन्द्राचार्य, पं० आशाधर, पं० जाजाक, नागार्जुन, शोठल वीरसिंह,-- इन्होंने स्वतंत्र भी लिखे थे तथा इनके साहित्य में आयुर्वेद के अंश भी विद्यमान हैं ।
यह एक सम्पूर्ण दृष्टि है, जो आयुर्वेद के जैनाचार्यों के लिए फैलाई जा सकती है। वैसे पूर्वमध्य युग अर्थात् ५००-१२०० ई० से पूर्व का कोई जैनाचार्य आयुर्वेद के क्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता है। आयुर्वेद के जैन मनीषी सर्वप्रथम आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी को माना जा सकता है।
(१) पूज्यपाद - इनका दूसरा नाम देवनंदी है। ये ई० ५ शती में हुए हैं। इनका क्षेत्र कर्नाटक रहा है । ये दर्शन, योग, व्याकरण तथा आयुर्वेद के अद्वितीय विद्वान् थे । पूज्यपाद अनेक विशिष्ट शक्तियों के धनी एवं विद्वान् थे । वे दैवीशक्ति-युक्त थे। उन्होंने गगन-गामिनी विद्या में
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हरिश्चन्द्र जैन
कौशल प्राप्त किया था। यह पारद के विभिन्न प्रयोग करते थे। निम्न-धातुओं से स्वर्ण बनाने की क्रिया जानते थे। उन्होंने शालाक्यतंत्र पर ग्रन्थ लिखा है। इनके वैद्यक ग्रन्थ प्रायः अनुपलब्ध है किन्तु इनका नाम कुछ आयुर्वेद के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में लिखा है और इनके आयुर्वेद साहित्य तथा चिकित्सा वैदुष्य की चर्चा की है। आचार्य श्री शुभचंद्र ने अपने "ज्ञानार्णव' के एक श्लोक द्वारा इनके वैद्यक ज्ञान का परिचय दिया है :
अपा कुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्तसम्भवम् ।
कलंकभंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ यह श्लोक ठीक उसी प्रकार का है जैसा पतञ्जली के बारे में लिखा है :
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।
याऽपा करोत् तं वरदं मुनीनां पतञ्जलिं प्राज्जलिरानतो सिम् ।। ऐसा लगता है कि पूज्यपाद पतञ्जलि के समान प्रतिभाशाली वैद्यक के ज्ञाता जैनाचार्य थे।
कन्नड कवि मंगराज वि०सं० १४१६ में हुए हैं, जिन्होंने खगेन्द्रमणीदर्पण, आयुर्वेद का
है। उन्होंने लिखा है कि मैंने अपने इस ग्रन्थ का भाग पूज्यपाद के वैद्यक ग्रन्थ से संग्रहीत किया है। इसमें स्थावर विषों की प्रक्रिया और चिकित्सा का वर्णन है। बौद्ध नागाजन से भिन्न एक नागार्जुन और थे, जो पूज्यपाद के बहनोई थे। उन्हें पूज्यपाद ने अपनी वैद्यक विद्या सिखाई थी। रसगुटिका, जो खेचरी गुटिका थी, का निर्माण भी उन्हें सिखाया था। पूज्यपाद रसायनशास्त्र के विद्वान् थे । वे अपने पैरों में गगनगामी लेप लगा कर विदेह क्षेत्र की यात्रा करते थे। ऐसा उल्लेख कथानक साहित्य में मिलता है।
दिगम्बर जैन साहित्य के अनुसार पूज्यपाद आयुर्वेद साहित्य के प्रथम जैन मनीषी थे। वे चरक, एवं पतंजलि की कोटि के विद्वान् थे। जिन्हें अनेक रसशास्त्र,योगशास्त्र और चिकित्सा की विधियों का ज्ञान था। साथ ही शल्य एवं शालाक्य विषय के विद्वान् आचार्य थे।
(२) महाकवि धनंजय--इसका समय वि० सं० ९६० है। इन्होंने 'धनंजय निघंटु' लिखा है, जो वैद्यक शास्त्र का ग्रन्थ है। ये पूज्यपाद के मित्र एवं समकालोन थे, जैसा कि श्लोक प्रकट करता है
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणं ।
धनंजयकवैः काव्य रत्नमयपश्चिमम् ।। इन्होंने विषापहार स्तोत्र लिखा है, जो प्रार्थना द्वारा रोग दूर करने के हेतु लिखा गया है ।
(३) गुणभद्र--शक संवत् ७३७ में हुए हैं, इन्होंने 'आत्मानुशासन' लिखा है, जिसमें आद्योपान्त आयुर्वेद के शास्त्रीय शब्दों का प्रयोग किया गया है और फिर शरीर के माध्यम से आध्यामिक विषय को समझाया है। इनका वैद्यक ज्ञान वैद्य से कम नहीं था।
(४) सोमदेव--ये ९वीं शती के आचार्य हैं। यशस्तिलक चम्पू में स्वस्थवृत्त का अच्छा वर्णन किया है। उन्हें वनस्पति शास्त्र का ज्ञान था, क्योंकि इन्होंने शिखण्डी तांडव वन की औषधियों का वर्णन किया है। ये रसशास्त्र के ज्ञाता थे ।
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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी
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(५) हरिश्चन्द्र -ये धर्मशर्माभ्युदय के रचयिता हैं। कुछ मैद्यक ग्रन्थों में इनका नाम भी आता है। कुछ विद्वान् इन्हें खरनाद संहिता के रचयिता मानते हैं।
(६) शुभचन्द्र--११वीं० शती के विद्वान् थे। इन्होंने ध्यान एवं योग के सम्बन्ध में ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ लिखा है। यह भी आयुर्वेद के ज्ञाता थे।
(७) हेमचन्दाचार्य--ये योगशास्त्र के विद्वान् थे । . (८) शोठल –ये ईसा की १२वीं शती में हुए हैं। इनका क्षेत्र गुजरात था। इन्होंने आयुर्वेद के अगदनिग्रह तथा गुणसंग्रह ग्रन्थ लिखे हैं, वे उपलब्ध हैं। प्रायोगिक व्यवहार के लिये उत्तम ग्रन्थ हैं।
(९) उग्रादित्य-ये ८वीं शती के कर्नाटक के जैन वैद्य थे। धर्मशास्त्र एवं आयुर्वेद के विद्वान् थे। जीवन का अधिक समय चिकित्सक के रूप में व्यतीत किया है। ये राष्ट्रकट राजा नृपतुग अमोघवर्ष के राज्य वैद्य थे। इन्होंने कल्याणकारक नामक चिकित्सा ग्रन्थ लिखा है। जो आज उपलब्ध है । इसमें २६ अध्याय हैं । इनमें रोग लक्षण, चिकित्सा, शरीर, कल्प, अगदतंत्र एवं रसायन का वर्णन है। ये सोलापुर से प्रकाशित है। रोगों का दोषानुसार वर्गीकरण आचार्य की विशेषता है। इन्होंने जैन आचार-विचार की दृष्टि से चिकित्सा की व्यवस्था में मद्य, मांस और मधु का प्रयोग नहीं बताया है। इन्होंने अमोघवर्ष के दरबार में मांसाहार की निरर्थकता वैज्ञानिक प्रमाणों के द्वारा प्रस्तुत की थी और अन्त में वे विजयी रहे।
मांसाहार रोग दूर करने की अपेक्षा अनेक नये रोगों को जन्म देता है, यह इन्होंने लिखा है। यह बात आज के युग में उतनी ही सत्य है । जितनी उस समय थी।
(१०) वीरसिंह-वे १३ वीं० शती में हुए हैं। इन्होंने चिकित्सा की दृष्टि से ज्योतिष का महत्त्व लिखा है। वीरसिंहावलोक इनका गन्थ है।
(११) नागार्जुन--इस नाम के कई आचार्य हुए हैं। जिसमें ३ प्रमुख हैं । जो नागार्जुन सिद्ध नागार्जुन थे, वे ६०० ए० डी० में हुए हैं। वे पूज्यपाद के शिष्य थे। उन्हें रशसात्र का बहुत ज्ञान था। इन्होंने नेपाल-तिब्बत आदि स्थानों की यात्रा की और वहाँ रसशास्त्र को फैलाया था। इन्होंने पूज्यपाद से मोक्ष प्राप्ति हेतु रसविद्या सीखी थी। इन्होंने (१) रस काच पुल और (२) कक्षपुर तम था सिद्ध चामुण्डा ग्रन्थ लिखे थे। भदन्त नागार्जुन और भिक्ष - नागागुन बौद्ध मतावलम्बी थे ।
(१२) पण्डित आशाधर-ये न्याय, व्याकरण, धर्म आदि के साथ आयुर्वेद साहित्य के भी मनीषी थे। इन्होंने वाग्भट्ट, जो आयुर्वेद के ऋषि थे, उनके अष्टांग हृदय ग्रन्थ की उद्योतिनी टीका की है, जो अप्राप्य है। इनका काल वि० सं० १२७२ है। ये मालव-नरेश अर्जुन वर्मा के समय धारा नगरी में थे। इनके वैद्यक ज्ञान का प्रभाव इनके "सागारधर्मामृत" ग्रन्थ में मिलता है। अतः ये विद्वान् वैद्य थे। इन्हें सूरि, नयविश्वाचा , कलिकालिकादास, प्रज्ञापुंज आदि विशेषणों से कहा गया है । अतः इनके वैद्य होने में संदेह नहीं है। पण्डित जी ने
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________________ 244 हरिश्चन्द्र जैन समाज को पूर्ण अहिंसक जीवन बिताते हुए मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है, शरीर, मन और आत्मा का कल्याणकारी उपदेश इनके सागारधर्मामृत में है। यदि श्रावक उसके अनुसार आचरण करे, तो रुग्ण होने का अवसर नहीं आ सकता है। (13) भिषक् शिरोमणि हर्षकीति सूरि-इनका ठीक काल ज्ञात नहीं हो सका है ये नागपुरीय तपागच्छीय चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे और मानकीर्ति भी इनके गुरु थे। इन्होंने योगचिन्तामणि और व्याधिनिग्रह ग्रन्थ लिखे हैं। दोनों उपलब्ध हैं और प्रकाशित हैं। दोनों चिकित्सा के लिए उपयोगी हैं / इनके साहित्य में चरक, सुश्रुत एवं वाग्भट्ट का सार है। कुछ नवीन योगों का मिश्रण है, जो इनके स्वयं के चिकित्सा ज्ञान की महिमा है / यह ग्रन्थ एक जैन आचार्य की रक्षा हेतु लिखा गया था। (14) डा० प्राण जीवन मणिक चन्द्र मेहता-इनका जन्म 1889 में हुआ। ये एम०डी० डिग्री धारी जैन हैं। इन्होंने चरक संहिता के अंग्रेजी अनुवाद में योगदान दिया है / जामनगर की आयुर्वेद संस्था में संचालक रहे हैं। इस प्रकार आयुर्वेद साहित्य के अनेक जैन मनीषी हुए हैं। वर्तमान काल में भी कई जैन साधु तथा श्रावक चिकित्सा शास्त्र के अच्छे जानकार हैं किन्तु उन्होंने कोई ग्रन्थ नहीं लिखे हैं / मैंने कई जैन साधुओं को शल्य-चिकित्सा का कार्य सफलता पूर्वक निष्पन्न करते हुए देखा है। जैन आचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य का लेखन तथा व्यवहार समाज-हित के लिये किया है। भारतवर्ष में जैन धर्म की अपनी दृष्टि है। उसमें जीवन को सम्यक् प्रकार से जीते हुए मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्ति करना होता है / इसलिये आहार-विहार आदि के लिए उन्होंने अहिंसात्मक समाज निर्माण का विचार एवं दर्शन दिया है। चिकित्सा में मद्य-मांस और म प्रयोग को धार्मिक दृष्टि से समावेश नहीं किया है। वैदिक परम्परा के आचार्यों ने, जो आयुर्वेद साहित्य लिखा है, उससे जैन परम्परा के द्वारा लिखित आयुर्वेद साहित्य में उक्त दोनों परम्पराओं की अच्छी बातों के साथ निजी विशेषताएँ है। वे अहिंसात्मक विचार की हैं जिनका सम्बन्ध शरीर, मन और आत्मा से है। इसका फल समाज में अच्छा हुआ है। आज जैन आचार्यों ने, जो आयुर्वेद साहित्य लिखा है, उसके सैद्धान्तिक एवं व्यवहार पक्ष का पूरा परीक्षण होना शेष है। जैन समाज तथा शासन को इस भारतीय ज्ञान के विकास हेतु आवश्यक प्रयत्न करना चाहिये। प्राध्यापक रात आयुर्वेद विश्वविद्यालय जामनगर
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