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जब जहाज आवे मार्ग में गये तो श्रीमतीका रूप देखकर राग और लोभमें अन्धे बने हुए सेट औदत्तका मन चलायमान हो गया ! कर्मवाले पापी सेठने मध्य रात्रि के समय जिनदत्तका समुद्र में किखा दिया। उसी समय जहाज में कोलाहल मच गया। जब श्रीमतीने सुना कि उसका पति समुद्रमे गिर गया है तो वह सेटसे कहने लगी, " हे पिताजी ! आप कुमारको समुद्र में छोड़कर कहां जा रहे हो । " बहुत अधिक से रही श्रीमतीको सेटने कहा, कुमार मेरा नहीं था । वह तो मेरा दास पुत्र था । तू मेरे साथ गृहस्वामिनी बनकर रहो । " श्रीमती विचार करने लगी, इसीने मेरे पतिको समुद्र में फेंका है, अन्यथा यह ऐसी बातें न करता ।" इसी सम्बन्ध में शास्त्रकारोंका कथन है :
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भक्खणे देवदव्वस्स, परत्थीण य संगमें। सत्तमं तरगं जंति, सत्तवारा य गोयमा ॥
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धारावाहिक धार्मिक कथा
भाग-२
इससे पूर्व आप पढ़ चुके हैं कि जिनदत्त जुए में हार जाने से लज्जाका अनुभव करने लगा। उसने पत्नीको मायके छोड दिया और औदत्त सेठ के साथ जहाजमे विदेश गया। फिर दशपुरकी राजकुमारी श्रीमती के साथ विवाह हुआ ।
अब आगे पढिये ।
जिनदत्त
लेखक : राजयश विजय
अर्थात् है गौतम ! जो देवद्रव्यका भक्षण
करता है तथा परस्त्री सेवन करता हैं वह सातबार सातवीं नरक में जाता है ।
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परस्त्री अनुरक्त सेठ को शिक्षा देनेके लिए श्रीमतीने कहा, मेरे शीलके प्रभाव से जहाज डूब जाए ।" उसी समय जहाज डोलने लगा । जहाज में सफर करनेवाले सभी मनुष्य क्रोधित हो उठे । सभी मनुष्योंके आकोषको देखकर हुआ सेठ श्रीमती के चरणों में गिरकर कहने मुझ दुष्ट पापको क्षमा करो ! " फिर कोई और आदमी कहने लगा, हम निरपराधियोंकी रक्षा करो। " फिर श्रीमतीने अपने हाथ के स्पर्श द्वारा जहाजको स्थिर कर दिया ।"
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फिर वह अपने मनमें इस प्रकार खेद करती है, "भाग्यने मुझे ऐसे स्थान पर गिरा दिया है जो मैं कह नहीं सकती । व्यक्ति सोचता कुछ है परन्तु होता कुछ और ही है ।