Book Title: Atmanand Prakash Pustak 014 Ank 09
Author(s): Jain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Atmanand Sabha Bhavnagar

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૧૩૦ www.kobatirth.org आत्मान' अश महामुर्खता है क्योंकि पंडितजीकी तरह जैन लोग भी कह सकते है कि नास्तिको जैन निन्दकः " इससे क्या सिद्ध हुए देखिये पाणीनीय कृत अष्टाध्यायी अ० ४ पा. ४ सु. ६० “ अस्ति नास्ति हिष्टमतिः " इस सुत्रकी टीका में भट्टोजी दिक्षित लिखते हैं कि जो परलोकको माने सो आस्तिक, जो परairat नहीं मानता है वो नास्तिक है इत्यादि अनेक बातों से पंडितको निरुत्तर किया तोभी सनातनीयोंको स्वपक्षमें लेनेके लिये प्रस्तुत विषयको छोड़कर अन्यान्य ऐसे २ प्रश्न करने लगे कि जिससे सनातनीयोंके सिद्धान्तका खंडत हो ये तब श्रीमद् वाचस्पतिने यही उत्तर दियाकी यहांपर कोई सनातन पंडित प्लेटफारमपर उपस्थित नहीं है अतः इनसे हमारा विवाद नहीं है तुम आर्यसमाजकी तरफसें प्लेटफारमपर खडे हो इस लिये तुमसे विवाद है इतना कहकर अनेक युक्तियों से मूर्तिपूजा सिद्ध की. तब पंडित बोले हाय ! हमारे सनातनी भाइयों मे मूर्तिपूजाका रिवाज वेदमें नहीं होनेपर भी जैनीयोंसे आया है तब वाचस्पतिजीने कहा के -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिपुष्टिवर्धनं दुर्वारुकमिव बन्धन्मृत्युमुक्षीयमामृतात. यजुर्वेद की इस श्रुतिको सुनाकरके पंडिजीको निरुतर कीया इस बातको छिपा करके किसी एक मिथ्या लेखने आर्यप्रकाश नामक छापेमें कैसि मिथ्या बात छपवाई है कि “ लब्धिविजयजी बोल्या के बधी मूर्तिओनी पुजा करवाथी पुन्य थाय छे " श्रीमद् वाचस्पतिजीका तो मात्र यही कहना था कि तुम्हारे वेदमें " त्र्यंबक यजामहे " इस श्रुतिका यह अर्थ होता है कि हम तीन नेत्रवाले सुगन्धि युक्त पुष्टि करनेवाला महादेवकी पुजा करते हैं यह अर्थ वेद सिद्धान्तानुकुल किया गया था नकि हमने स्वीकार कीया था. क्योंकि जैन मतावलंबियो का यह सिद्धान्त जगजाहिर है कि वे वीतराग देवकी मूर्तिको मानते है और शास्त्रार्थमें जो महादेव आदिका पुजन वेदसें सिद्ध किया था उससे वह सिद्ध नहीं होता है कि जैनलोग मानते है. बस लेखकने आर्यप्रकाश में वृथा विलाप किया है इस लिये लेखको पढ कर भ्रम में पडना योग्य नहीं है. सिद्ध हुआ कि पाठकजनों को उस लेखक मुनि - गंभिरविजयजी - महुधा. 25 For Private And Personal Use Only

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