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એક આય સમાજકા મૃષાવાદ.
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वाली जो जो युक्तियें देरहे है इसका जवाब देना कठिन है. इस लिये उठकर पंडितजीने प्रातः स्मीय श्रीमन्महावीर स्वामी आदि तीर्थकर जगतमें अत्यन्त पूजनीय है तथा पवित्र अत्र विराजमान साधु मूर्तियोंको देख कर मुझे हर्ष होता है. इत्यादि चाटु वचनोसे श्रीमद् व्याख्यान वाचस्पतिजीकी दी हुइ युक्तिवाका यद्वातद्वा ( उल्टसुलट ) उतर देने लगे. पाठकजन यह न समजें कि पंडितजी शान्त व गुणानुरागी वे किन्तु चाटु बचनोंसे खुश करके शास्त्रार्थसे अपना पल्ला छोडना चाहते थे इसके बाद श्रीमान् सरीश्वरजी महाराजकी आज्ञानुसार श्रीमद् वाचस्पतिजीने अकाट्य ( मजबूत ) युक्तियोंसे मुक्तिले जीवका पुनरागमन नहीं होता. इस सिद्धान्तको पुनरसिद्ध किया. जिसका उतर आर्यसमाजके पंडितजी कुछ भी नहीं देसके. इस बातको छिपाकर लेखकका यह लिखना कि मुनि लब्धिबिजयजी ( अमे पण वेद अने इश्वरने मानीये छीये) ये शद्ध बोले थे वे अत्यन्त असत्य है क्योंकि श्रीमद् वाचस्पतिजीके मुखसे ये विलकुल नहीं निकले है, मात्र यह लेख लिखकर लोगोंको धोका दिया है. अन्तमें श्रीमद् वाचस्पतिजीने जब पंडितजीको मुक्ति से जीव वापीस नहीं आ सकता है इस विषयमें चुप करादिया तब वहांके गुणानुरागी हेड मास्टरजीने खड़े होकर कहाकि मुक्तिसें जीव वापीस नहीं आसकता है इस बातको जैन मुनिजीने अनेक मजवुत दलिलोंमें सिद्ध कर दिखाया है और आर्यसमाजके पंडितजी एक युक्तिसे भी स्वासिद्धजलको सिद्ध नहीं कर सके है अब किस बातकी चर्चा होनी चाहीये उस वखत पब्लीकने यही उत्तम दियाकि अब मूर्ति पूजाके विषयमें यथार्थ शास्त्रार्थ होना चाहीये. क्योंकि मुक्ति के विषयमे पंडितजी निरुत्तर होकर अपने पराज्यको समजते हुए भी इधर उधरकी बातें बनाकर नाहकमें हमारे समयको व्यर्थ नष्ट करते है अतः इस विषयको छोडकर मूर्ति पूजाके विषयको चलाना चाहिये. पब्लीकले इन शब्दोको सुनकर क्रोधित होकर आर्यसमाजके पंडित एकदम कूद पडे और कहने लगे कि अय सनातनी भाइयो ! ये जैन लोग इश्वरको नहीं मानने है नास्तिको वेद निंदकः इत्यादि असभ्य बोलकर चूप रहे. तब श्री वाचस्पतिजीने कहाकि हम हश्वरको मानते है, कौन कहता है कि जैन लोग ईश्वरको नहीं मानहे है. हाँ ! जैनी निष्कलंक इश्वर परमात्माको मानते है, नहि कलंकिको. वाकी जैनको नास्तिक कहना
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