Book Title: Ashtdashi
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta

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Page 5
________________ तीर्थकर मासिक के सम्पादक डॉ. नेमिचन्द जैन ने ऐसी मानवसेवी संस्थाओं को लोकमाता की उपमा से उपमित किया है। माँ का स्नेह, वात्सल्य पाकर जैसे बालक बढ़ता है वैसे ही संस्थाओं का अवलम्ब एवं आश्रय पाकर जनकल्याणकारी कार्य निरन्तर गतिमान एवं प्रवर्द्धनमान रहते हैं। वस्तुत: लोकमाता नदी को कहा जाता है। नदी सतत प्रवाहिनी होती है। गति ही इसका जीवन होती है और प्रवाह उसको सदा निर्मल बनाये रहता है। यही स्थिति संस्थाओं की होती है। शिक्षा-संस्थाएँ भी संस्कार सम्पन्न बालकों का निर्माण कर सुनागरिक बनाती हैं। श्री जैन सभा द्वारा संस्थापित एवं संचालित शिक्षण संस्थाएँ भी ऐसी ही संस्कारी बालकों के निर्माण केन्द्र हैं जो देश के भविष्य के निर्माता की अहम् भूमिका का निर्वाह करेंगे और सुनागरिक बनकर भारतीय संस्कृति की पताका विश्व में फहरायेंगे। अष्ट दशकीय इसकी लोकमंगल यात्रा शताब्दी की ओर उन्मुख है, एक उज्ज्वल भविष्य के लिये। कार्यकर्ता उत्साहित हैं और लोकमंगलकारी भावी योजनाओं को मूर्तरूप देने के लिये कृतसंकल्प हैं। जहाँ चाह है, वहाँ राह है और कार्यकर्ता अकुण्ठ भाव से इसमें जुड़े हैं। सफलता असंदिग्ध है। सभा की आठ दशकीय सेवा यात्रा को इस स्मारिका में मूर्तरूप देने का प्रयास किया है। इसकी इतिहास कथा भी इसमें समाहित है। चलते रहना, सतत प्रवर्द्धमान रहना सभा की चरित्रगत विशेषता है। कार्यकर्ताओं तथा प्रवृत्तियों एवं क्रियाकलापों की सचित्र झांकी भी इसी इतिहास का एक अंग है। विद्वानों, मनीषियों के सुचिन्तित लेखों से इसे संग्रहणीय और पठनीय रूप देने का प्रयास किया है। इसे सजाने और संवारने में श्री पदमबाबू नाहटा का अध्यवसाय रेखांकित करने योग्य है। संपादक मंडल का सहयोग भी उल्लेखनीय है। मुद्रक और प्रकाशक के प्रति आभार हमारा दायित्व है। त्रुटियों के लिये हम जिम्मेदार हैं। अच्छाइयाँ सब आपको समर्पित है। लोककल्याण एवं लोकमंगल की यह मशाल सदा जलती रहे एवं जाज्ज्वल्यमान बनकर सर्वत्र प्रकाश विकीर्ण करती रहे, इसी भावना के साथ यह आपको अर्पित है। भूपराज जैन ० अष्टदशी ० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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