Book Title: Ashtaprakari Puja Author(s): Ajaysagar Publisher: Z_Aradhana_Ganga_009725.pdf View full book textPage 6
________________ २३ स्वरूप में लगाकर, उत्कृष्ट समाधि सिद्ध कर अनंत दर्शन- ज्ञान - चारित्र कें गुणों को प्रगट किया है. आपकी निर्मल नाभि के पूजन से मुझे भी अनंत दर्शन- ज्ञान-चारित्र आदि गुणों को प्रगट करने का सामर्थ्य प्राप्त हो. नाभि के आठ रुचक प्रदेश की तरह मेरे भी सर्व आत्मप्रदेश शुद्ध हो. उपसंहार- अपने आत्मा के कल्याण के लिये, नवतत्त्व के उपदेश ऐसे प्रभुजी के अंगों की पूजा विधिपूर्वक राग से भाव से करे ऐसा पू. उपाध्याय वीरविजयजी महाराजने कहा है. ३. पुष्प पूजा पुष्प पूजा का रहस्य हे परमात्मा! सुगंधित पुष्पों से अपने अंतर मन को सुगंधित बनाकर मैं आधिव्याधि-उपाधि को नष्ट करना चाहता हूँ. नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा. (२७ डंके बजाये ) पांच कोडीने फूलडे, पाम्या देश अढार, राजा कुमारपाळनो, वर्त्यो जय जयकार! (सुंदर सुगंधवाले और अखंड पुष्प चढाने चाहिये, नीचे गिरे हुए और बासी पुष्प चढ़ायें नहीं जा सकते.) ४. धूप पूजा धूप पूजा का रहस्य हे परमात्मा ! जिस प्रकार से ये धूप की घटाएँ ऊँची ऊँची उठ रही है वैसे ही मुझे भी उच्च गति पाकर सिद्धशिला को प्राप्त करना है. इसलिए आपकी धूप-पूजा कर रहा हूँ. हे तारक! आप मेरे आत्मा की मिथ्यात्व रूपी दुर्गंध दूर करके शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रगटाओ. नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु- निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा (२७ डंके बजाये ) साधक कौन ? कार्य में अ-परपीड़क, दुःख में अ-दीन, सुख में अ-लीन, मान्यता में अ-कदाग्रही.Page Navigation
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