Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 31
________________ ३० श्री अष्टक प्रकरण अशुभ कार्य रसपूर्वक नहीं करता । तथा कोई अशुभ प्रवृत्ति करनी ही पड़े तो दुःखी दिल से करता हैं । शुभ प्रवृत्ति न कर सके तो अपार वेदना का अनुभव करता हैं । स्वस्थवृत्तेः प्रशान्तस्य, तद्धेयत्यादिनिश्चयम् । तत्त्वसंवेदनं सम्यग् यथाशक्ति फलप्रदम् ॥६॥ अर्थ - स्वस्थ (अनुकूल) प्रवृत्तिवाले तथा प्रशांत जीव के हेयोपादेय आदि का निर्णयवाला जो ज्ञान वह तत्त्वसंवेदन रूप हैं। यह ज्ञान साधक की शक्ति - अनुसार सुंदर प्रकार का फल देता हैं | न्याय्यादौ शुद्धवृत्त्यादि - गम्यमेतत्प्रकीर्तितम् । सज्ज्ञानावरणापायं, महोदयनिबन्धनम् ॥७॥ अर्थ - सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्षमार्ग में निरतिचार प्रवृत्ति और मिथ्यादर्शनादि रूप संसारमार्ग से निवृत्ति तत्त्वसंवेदन ज्ञान का लिंग हैं। ज्ञानावरण का अपायक्षयोपशम यह ज्ञान का हेतु हैं । इस ज्ञान का (अनंतर फल विरति और परंपरा से) फल मोक्ष हैं । एतस्मिन् सततं यत्नः, कुग्रहत्यागतो भृशम् । मार्गश्रद्धादिभावेन, कार्य आग्मतत्परैः ॥८ ॥ अर्थ - आगम में तत्पर जीवों को कदाग्रह का त्यागकर मोक्षमार्ग संबंधी ज्ञान, श्रद्धा और आचरण करने के साथ इस तत्त्वसंवेदन ज्ञान में निरंतर अतिशय आदर करना चाहिए ।

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