Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 40
________________ श्री अष्टक प्रकरण के द्वारा जैनधर्म का स्वीकार करना आदि निरवद्य-निर्दोष फल मिलते हैं । प्रतिवादी से साधु का पराजय हो तो अवश्य अपनी (साधु की) मोह-अज्ञानता का नाश होता हैं। देशाद्यपेक्षया चेह, विज्ञाय गुरुलाघवम् । तीर्थकृज्ज्ञातमालोच्य, वादः कार्यो विपश्चिता ॥८॥ अर्थ - यहाँ विद्वान देश, काल आदि अनुसार लाभहानि को जानकर तीर्थंकर भगवान महावीर के दृष्टांत का विचार करते हुए वाद करे ।

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