Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 68
________________ श्री अष्टक प्रकरण ६७ २२. अथ भावशुद्ध्यष्टकम् भावशुद्धिरपि ज्ञेया, यैषा मार्गानुसारिणी । प्रज्ञापनाप्रियात्यर्थं, न पुनः स्वाऽऽग्रहात्मिकी ॥१॥ अर्थ - भावशुद्धि भी यदि जिनोक्त मार्ग का अनुसरण करती हो तथा जिसमें आगमार्थ का उपदेश अत्यंत प्रिय हो, वही पारमार्थिक जानना चाहिए, न कि स्वाग्रह - अपना आग्रह । कारण कि स्वाग्रह भाव की अशुद्धि रूप हैं । रागो द्वेषश्च मोहश्च, भावमालिन्यहेतवः । एतदुत्कर्षतो ज्ञेयो, हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः ॥२॥ तथोत्कृष्टे च सत्यस्मिन्, शुद्धिर्वै शब्दमात्रकम् । स्वबुद्धिकल्पनाशिल्प - निर्मितं नार्थवद् भवेत् ॥३॥ — भाव अर्थ - राग, द्वेष और मोह भावमालिन्य के अशुद्धि के कारण हैं । इससे परमार्थ से रागादि - वृद्धि से भावमलिनता की ही वृद्धि जानना चाहिए । रागादि के उत्कर्ष से स्वाग्रह की वृद्धि होने पर भावशुद्धि अर्थ रहित शब्दमात्र हैं । जो स्वबुद्धि से कल्पनारूप शिल्प से रचित हो वह निरर्थक होता हैं । अर्थात् जहाँ रागादि के उत्कर्ष से केवल स्वाग्रह ही हो वहाँ भावशुद्धि होती ही नहीं। फिर भी भावशुद्धि वहाँ हैं, ऐसा कोई कहे तो वह भावशुद्धि कल्पित होने से निरर्थक हैं । I

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