Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 39
________________ ३८ श्री अष्टक प्रकरण लब्धिख्यात्यार्थिना तु स्याद्, दुःस्थितेनाऽमहात्मना । छलजातिप्रधानो यः, स विवाद इति स्मृतः ॥४॥ अर्थ - धन आदि का और ख्याति का अर्थी, दु:स्थित ( दरिद्र अथवा मानसिक दु:स्थितिवाला) और अनुदार चित्तवाला जो प्रतिवादी हैं, उसके साथ छल और जाति के द्वारा जो वाद वह विवाद हैं। विजयो ह्यत्र सन्नीत्या, दुर्लभस्तत्त्ववादिनः । तद्भावेऽप्यन्तरायादि दोषोऽदृष्टविघातकम् ॥५॥ — I अर्थ - विवाद में तत्त्ववादी को उत्तम नीतिपूर्वक विजय दुर्लभ हैं | अत्यंत अप्रमत्त बनकर प्रतिवादी के छल आदि को दूर करने से विजय मिले तो भी अंतराय आदि दोष उत्पन्न होते हैं । ये दोष परलोक को बिगाड़ते हैं । परलोकप्रधानेन, मध्यस्थेन तु धीमता । स्वशास्त्रज्ञाततत्वेन, धर्मवाद उदाहृतः ॥ ६ ॥ अर्थ - परलोक को मुख्य रखनेवाला, स्व-परदर्शन में मध्यस्थ, बुद्धिमान और स्वशास्त्र के परमार्थ को जाननेवाला प्रतिवादी हो तो उसके साथ जो वाद किया जाय वह धर्मवाद हैं । विजयेऽस्य फलं धर्म - प्रतिपत्त्याद्यनिन्दितम् । आत्मनो मोहनाशश्च नियमात् तत्पराजयात् ॥७॥ , अर्थ - धर्मवाद में साधु को विजय मिले तो प्रतिवादी

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