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अष्टपाहुड मनुष्य शरीरके एक-एक अंगुल प्रदेशमें जब छियानवे छियानवे रोग होते हैं तब शेष समस्त शरीर में कितने-कितने रोग कहे जा सकते हैं, हे जीव! यह तू जान।।३७ ।।
ते रोया विय सयला, सहिया ते परवसेण पुव्वभवे।
एवं सहसि महाजस, किंवा बहुएहिं लविएहिं।।३८ ।। हे महायशके धारक जीव! तूने वे सब दुःख पूर्वभवमें परवश होकर सहे हैं और अब इस प्रकार सह रहा है, अधिक कहनेसे क्या? ।।३८।।
पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जियरुहिरखरिस किमिजाले।
उयरे वसिओसि चिरं, नवदसमासेहिं पत्तेहिं ।।३९।। हे जीव! तूने पित्त, आंत, मूत्र, फुप्फुस, जिगर, रुधिर, खरिस और कीडोंके समूहसे भरे हुए माताके उदरमें अनंत वार नौ-नौ दस-दस मास तक निवास किया है।।३९ ।।
____दियसंगट्ठियमसणं, आहारिय मायभुत्तमण्णांते ।
छदिखरिसाणमध्ये जठरे वसिओसि जणणीए।।४०।। हे जीव! तूने माताके पेटमें दाँतोंके संगमें स्थित तथा माताके खानेके बाद उसके खाये हुए अन्नको खाकर वमन और खरिसके बीच निवास किया है।
सिसुकाले य अमाणे असुईमज्झम्मि लोलिओसि तुमं।
असुई असिआ बहुसो, मुणिवर बालत्तपत्तेण।।४१।। हे मुनिश्रेष्ठ! तू अज्ञानपूर्ण बाल्य अवस्थामें अपवित्र स्थानमें लौटा है तथा बालकपनके कारण अनेक बार तू अपवित्र वस्तुओंको खा चुका है।।४१।।
मंसट्ठिसुक्कसोणियपित्तंतसक्तकुणिमदुग्गंधं। माना
खरिसवसपूयखिब्भिसभरियं चिंतेहि देहउडं।।४२।। हे जीव! तू इस शरीररूपी घड़ेका चिंतन कर जो मांस, हड्डी, वीर्य, रुधिर, पित्त, आंतसे झरती हुई मुर्देके समान दुर्गंधसे सहित है तथा खरिस, चर्बी, पीप आदि अपवित्र वस्तुओंसे भरा हुआ है।।४२।।
भावविमुत्तो मुत्तो, णय मुत्तो बंधवाइमित्तेण।
इय भाविऊण उज्झसु, गंथं अब्भंतरं धीर।।४३।। जो रागादिभावोंसे मुक्त है वास्तवमें वही मुक्त है। जो केवल बांधव आदिसे मुक्त है वह मुक्त नहीं है। ऐसा विचार कर हे धीर वीर! तू अंतरंग परिग्रहका त्याग कर।।४३ ।।
देहादिचत्तसंगो, माणकसाएण कलुसिओ धीर।
अत्तावणेण आदो, बाहुबली कित्तियं कालं।।४४।। हे धीर मुनि! देहादिके संबंधसे रहित किंतु मान कषायसे कलुषित बाहुबली स्वामी कितने समय तक आतापन योगसे स्थित रहे थे? । १. बिना पके हुए रुधिरसे मिले हुए कफको खरिस कहते हैं।