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हे मुनि! तू दस प्रकारके अब्रह्मका त्याग कर। नव प्रकारके ब्रह्मचर्यको प्रकट कर, क्योंकि मैथुनसंज्ञामें आसक्त होकर ही तू इस भयंकर संसारसमुद्रमें भ्रमण कर रहा है । । ९८ ।।
भावसहिदो य मुणिणो, पावइ आराहणाचउक्कं च । भावरहिदो य मुणिवर, भमइ चिरं दीहसंसारे ।। ९९ ।।
हे मुनिवर ! भावसहित मुनिनाथ ही चार आराधनाओंको पाता है तथा भावरहित मुनि चिरकालतक दीर्घसंसारमें भ्रमण करता रहता है ।। ९९ ।।
पावंति भावसवणा, कल्लाणपरंपराई सोक्खाई।
दुक्खाई दव्वसवणा, णरतिरियकुदेवजोणीए । । १०० ।।
भावलिंगी मुनि कल्याणोंकी परंपरा तथा अनेक सुखोंको पाते हैं और द्रव्यलिंगी मुनि मनुष्य, तिर्यंच और कुदेवोंकी योनिमें दुःख पाते हैं । । १०० ।।
छादालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्ध भावेण ।
पत्तोसि महावसणं, तिरियगईए अणप्पवसो । । १०१ । ।
! तूने अशुद्ध भावसे छ्यालीस दोषोंसे दूषित आहार ग्रहण किया इसलिए तिर्यंच गतिमें परवश होकर बहुत दुःख पाया है ।। १०१ ।।
सच्चित्तभत्तपाणं, गिद्धीदप्पेणऽधी पभुत्तूण |
पत्तोसि तिव्वदुक्खं, अणाइकालेण तं चिंत । । १०२ ।।
मुनि! तूने अज्ञानी होकर अत्यंत आसक्ति और अभिमानके साथ सचित्त भोजनपान ग्रहण कर अनादि कालसे तीव्र दु:ख प्राप्त किया है, इसका तू विचार कर ।। १०२ ।।
कंद मूलं बीयं, पुष्पं पत्तादि किंचि सच्चित्तं ।
असिऊण माणगव्वं, भमिओसि अणंतसंसारे । । १०३ ।।
हे जीव! तूने मान और घमंडसे कंद मूल बीज पुष्प पत्र आदि कुछ सचित्त वस्तुओंको खाकर इस अनंत संसारमें भ्रमण किया है । । १०३ ।।
विणयं पंचपयारं, पालहि मणवयणकायजोएण ।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं ण पावंति । ।१०४ ।।
मुनि! तू मन, वचन, कायरूप योगसे पाँच प्रकारके विनयका पालन कर, क्योंकि अविनयी मनुष्य तीर्थंकर पद तथा मुक्तिको नहीं पाते हैं । । १०४ ।।
१. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार ये विनयके पाँच भेद हैं।