Book Title: Ashta Pahud
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 45
________________ अष्टपाहुड णियसत्तिए महाजस, भत्तीराएण णिच्चकालम्मि । तं कुण जिणभत्तिपरं, विज्जावच्चं दसवियप्पं । । १०५ । । हे महायशके धारक! तू भक्ति और रागसे निजशक्तिके अनुसार जिनेंद्रभक्तिमें तत्पर करनेवाला दसौं प्रकारका वैयावृत्त्य कर । जं किंचि कयं दोसं, मणवयकाएहिं असुहभावेण । ३०१ तंगरहि गुरूसयासे, गारव मायं च मोत्तूण । । १०६ ।। मुनि ! अशुभ भावसे मन, वचन, कायके द्वारा जो कुछ भी दोष तूने किया हो, गर्व और माया छोड़कर गुरुके समीप उसकी निंदा कर । । १०६ ।। दुज्जणवयणचउक्कं, णिड्डरकडुयं सहंति सप्पुरिसा । कम्ममलणासणट्टं, भावेण य णिम्मया सवणा ।।१०७।। सज्जन तथा ममतासे रहित मुनीश्वर कर्मरूपी मलका नाश करनेके लिए अत्यंत कठोर और कटुक दुर्जन मनुष्यों के वचनरूपी चपेटाको अच्छे भावोंसे सहन करते हैं । । १०७ ।। पावं खवइ असेसं, खमाय परिमंडिओ य मुणिपवरो । खेयर अमरणराणं, पसंसणीओ धुवं होई । । १०८ ।। क्षमा गुणसे सुशोभित श्रेष्ठ मुनि समस्त पापोंको नष्ट करता है तथा विद्याधर, देव और मनुष्यों के द्वारा निरंतर प्रशंसनीय रहता है । । १०८ ।। इय णाऊण खमागुण, खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं । चिरसंचियकोहसिहिं, वरखमसलिलेण सिंचेह । । १०९ ।। क्षमाणके धारक मुनि ! ऐसा जानकर मन वचन कायसे समस्त जीवोंको क्षमा कर और चिरकालसे संचित क्रोधरूपी अग्निको उत्कृष्ट क्षमारूपी जलसे सींच । । १०९ ।। दिक्खाकालाईयं, भावहि अवियारदंसणविसुद्धो उत्तमबोहिणिमित्तं, असारसंसारमुणिऊण । । ११० ।। हे विचाररहित मुनि, तू उत्तम रत्नत्रयके लिए संसारको असार जानकर सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध होता हुआ दीक्षाकाल आदिका विचार कर । । ११० ।। सेवहि चउविहलिंगं, अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो । बाहिरलिंगमकज्जं, होइ फुडं भावरहियाणं । । १११ । । १. आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके मुनियोंकी सेवा करना दस प्रकारका वैयावृत्त्य है।

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