Book Title: Ashadharji aur Unka Sagardharmamrut
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 4
________________ पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत २५९ संततिरूप परम्परा से चली आई परिग्रह संज्ञा को अर्थात् स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, दासी, दास आदि परिग्रह में 'यह मेरा है' इस प्रकार के मूर्च्छात्मक परिणामों को छोडने के लिए असमर्थ है। कोई विरले प्राणी जन्मान्तर में प्राप्त हुए रत्नत्रय के प्रभाव से ही साम्राज्यादि विभूति को त्याज्य समझते हैं । तथा तत्त्वज्ञान पूर्वक देश संयम का पालन करते हुए उदासीन रूप से विषयों को भोगते हैं । जिनका हृदय मिथ्यात्व से व्याप्त है वह जीव मानव तन को धारण करके भी पशु के समान है । और जिनका चित्त सम्यक्त्व रूपी रत्न से व्याप्त है वह पशु हो कर भी मानव है । संसार के पदार्थों में आसक्ति होने का कारण मिथ्यात्व है । उसके गृहीत अगृहीत और संशय यह तीन भेद हैं । नेमिचन्द्र आचार्य ने मिथ्यात्व के एकान्तमिथ्यात्व, विपरीतमिथ्यात्व अज्ञानमिथ्यात्व, विनयमिथ्यात्व तथा संशय मिथ्यात्व ये पांच भेद कहे हैं । यह पांचों ही भेद पंडितवर्यने अपने तीनों भेदों में गर्भित किए हैं। दूसरों के उपदेश से ग्रहण किए गए अतत्त्वाभिनिवेशरूप गृहीतमिथ्यात्व, विपरीत, एकान्त तथा विनयमिध्यात्व के भेद से तीन प्रकार का है । अनादि काल के मिथ्यात्व कर्म के उदय से होनेवाला अज्ञानभाव ही अज्ञान मिथ्यात्व वा अगृहीतमिथ्यात्व कहलाता है । सांशयिकमिथ्यात्व का स्वतंत्र भेद है ही इसलिए पांचोंही मिथ्यात्व इन तीनों भेदों में गर्भित हैं । आसन्न भव्यता, कर्महानि, संज्ञित्व, शुद्धिभाक्, देशनादि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण हैं । उसमें कुछ कारण अन्तरंग है । कुछ बहिरंग । ग्रन्थकर्त्ताने इनका पांच लब्धि तथा करणानुयोग में ही कही गई करण लब्धि आदि सब का समावेश है । इस कलि काल में समीचीन उपदेश देनेवाले गुरु भी दुर्लभ है । और उनके सुननेवाले भाव श्रावक भी दुर्लभ है । सम्यग्दर्शन की शोभा मूल गुण और उत्तर गुण के ही होती है, क्योंकि सम्यग्दर्शन धर्मरूपी वृक्ष की जड है जड के बिना वृक्ष नहीं और वृक्ष की शोभा नहीं । इसलिए मूल गुण और उत्तर गुणों का उल्लेख करना परमावश्यक है । श्रावक का वर्णन करते समय कहा है कि सागार धर्म का धारी श्रावक के १४ विशेषण होना चाहिए । यह विशेषण और ग्रन्थों में देखने में नहीं मिलते है । न्यायपूर्वक धनोपार्जन करनेवाला, गुण और गुरुओं की पूजा भक्ति करनेवाला, अच्छी वाणी बोलनेवाला, धर्म अर्थ और कामपुरुषार्थ को परस्पर विरोध रहित सेवन करनेवाला, रहने का स्थान तथा पत्नी धर्म में बाधा देनेवाला नहीं हो, युक्तिपूर्वक आहार विहार करनेवाला, सज्जन पुरुषों की संगति करनेवाला, बुद्धिमान, कृतज्ञ, इन्द्रियों को वश में करनेवाला, धर्म विधि को सुननेवाला, दयालु तथा पापसे डरनेवाला होना चाहिए जिस प्रकार जबतक खेत की शुद्धि नहीं की जाती तबतक समीचीन अन्कुरोत्पत्ति होती नहीं । उसी प्रकार खान पान संगति की शुद्धि विना परिणाम विशुद्धि नहीं होती । निर्मल सम्यग्दर्शन पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा मरण के अन्त में समाधि मरण करना यह श्रावक का पूर्ण धर्म है । उसमें भी श्रावक के अवश्य करने योग्य कार्य दान और पूजा है । दान और पूजा धन के विना हो नहीं सकती और धनोपार्जन हिंसा और आरंभ के बिना नहीं तथा आरंभजन्य पापों के नाश करने का साधन पक्ष चर्या और साधन है । मैं देवता मंत्र सिद्धि आदि किसी । हिंस Jain Education International धर्मोपदेश को धारण करने से पुष्पपत्ते बिना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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