Book Title: Ashadharji aur Unka Sagardharmamrut
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
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श्रावक के १२ व्रत हैं । अन्त में सल्लेखना मरण करना ही व्रतों की सफलता है । सम्यक्प्रकार शास्त्रोक्त विधि से कषाय और शरीर को कृष करना सल्लेखना है ।
जिसका प्रतिकार करना अशक्य हो ऐसे बुढापा, रोग, दुर्भिक्ष, उपसर्ग आदि के आनेपर कषायों के साथ सम्पूर्ण आहारादि का त्याग करना धर्म के लिये शरीर छोड़ना समाधि मरण है ।
श्रावक और मुनि दोनों ही सल्लेखना के पात्र हैं । जो श्रावक सल्लेखना करते हैं वे कहलाते हैं । जब तक शरीर स्वस्थ रहे तब तक उसका अनुवर्त्तन करना चाहिये । परन्तु जब शरी के प्रति अन्न का कोई उपयोग नहीं होता उस समय यह शरीर त्याज्य है । उपसर्ग के कारण तथा निमित्त ज्ञान से वा अनुमान से शरीर के नाश समझकर अभ्यस्त अपने व्रतों को सफल बनाने के लिये सल्लेखना करना चाहिये ।
यदि मरण की एकदम सम्भावना हो तो उसी समय प्रायोपगमन करना चाहिये अर्थात् अन्त समय में समस्त आहार पानी का त्याग करना चाहिये ।
सल्लेखना गण के मध्य में की जाती है। यदि पूर्वोपार्जित पाप कर्म का तीव्र उदय नहीं है तो सल्लेखना अवश्य होती है । दूर भव्य हो मुक्ति दूर हो तो भी समाधिमरण का अभ्यास अवश्य करना चाहिये । क्योंकि शुभ भावों से मरकर स्वर्ग जाना अच्छा है, अशुभ भावों से पापोपार्जन कर नरक में जाना ठीक नहीं है । जीव के मरते समय जैसे परिणाम होते है वैसी ही गति होती है । इसलिये मरण समय का महान माहात्म्य है । यदि मरण समय में निर्विकल्प समाधि हो जाय तो मुक्ति पद की प्राप्ति होती है, अतः अन्त समय के सुधारने के लिये स्वयं सावधान रहना चाहिये। मुनि हो तो अपने संघ को छोड़कर अन्य संघ में जाकर निर्यापकाचार्य के आचार्य जैसे विधि aTTa at विधि परिणाम विशुद्धि के लिये करना चाहिये ।
सुपूर्द होना चाहिये तथा वे
समाधि मरण के इच्छुक साधक श्रावक वा मुनि को तीर्थ स्थान में वा निर्यापकाचार्य के समीप जाना चाहिये । यदि समाधि सिद्धि के लिये तीर्थ स्थान में वा निर्यापकाचार्य के समीप जाते समय रास्ते में मरण हो जाय तो भी साधक की समाधि भावना सिद्ध समझी जाती है। तीर्थ क्षेत्र में वा आचार्य के तलाश में जाने के समय प्रथम सब से क्षमा याचना तथा स्वतः सबको क्षमा करनी चाहिये । समाधि इच्छुक भव्य योग्य क्षेत्र काल में विशुद्धि रूपी अमृत से अभिषिक्त होकर पूर्व या उत्तर मुख करके समाधि के लिये तत्पर होना चाहिये ।
जिनको देह के दोषों के कारण होने पर भी मुनि व्रत दिया जा सकता है । महा दे सकते हैं ।
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मुनित्रत वर्जनीय है परन्तु समाधि के समय उन दोषों से सहित आर्यिका को भी समाधि समय नग्न दीक्षा रूप उपचरित
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