Book Title: Ashadharji aur Unka Sagardharmamrut Author(s): Suparshvamati Mataji Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 1
________________ पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत पू. श्री आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी जैनसाहित्य में 'धर्मामृत' ग्रन्थ का विशिष्ट स्थान है। एवं उसके रचयिता पं. आशाधरजी ने जैन साहित्यकारों में भी अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। पंडितवर्य आशाधरजी का जन्म वि. सं. १२३५ में हुआ। उनके जीवितकाल में लिखा गया अन्तिम उपलब्ध ग्रन्थ अनगारधर्मामृत की टीका वि. सं. १३०० की है। इसके बाद वे कितने दिन जीवित थे यह नहीं जाना जाता। उनका जन्म एक परंपराशुद्ध और राजमान्य बघेरवाल जातके उच्च कुल में हुआ था। इसलिए बालसरस्वती मदनोपाध्याय जैसे लोगों ने उनका शिष्यत्व निःसंकोच स्वीकार किया। ग्रन्थकार मूल में मेवाड प्रान्त के धारानगर के वासी थे । शहाबुद्दीन घोरी के आक्रमण से त्रस्त होकर पुनः धर्मभावना के हेतु धारानगरी को छोडकर उसने नलकच्छपुर में वास किया। उस समय धारानगरी विद्या और संस्कृति का केन्द्र बनी हुई थी। वहां राजा भोज, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे विद्वान् और विद्वानों का सम्मान करनेवाले राजा एकके बाद एक हो रहे थे। महाकवि मदन की पारिजातमंजरी के अनुसार उस समय विशालधारानगरी में चौरासी चौराहे थे तथा वहां सब जगह से आये हुए विद्वानों की, कलाकोविदों की भीड़ लगी रहती थी। वहां 'शारदासदन' नामक विस्तृत ख्यातीवाला विद्यापीठ था। पं. आशाधरजीने भी स्वयं उस नगरी में ही व्याकरण और न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। उपजीविका के हेतु नाममात्र प्राप्त करके उन्होंने अपना शेष समस्त जीवित धर्मकार्यों में ही बिताया । वे गृहस्थ होकर भी उनके जीवन में वैराग्य छाया हुआ था। संसार के शरीरभोगों के प्रति उदासीनताही धर्म का रहस्य प्राप्त करने में सहाय्यक बनी । धर्म के ज्ञाता होने से श्रमणों के प्रति तथा उनके धर्म के प्रति सहज अनुराग था । उनके सहस्र नाम में आये हुए प्रभो भवांगभोगेषु निर्विण्णो दःखभीरुकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ अद्य मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किंचिदुन्मुखः । अनन्तगुणमाप्तेभ्यस्त्वां श्रुत्वा स्तोतुमुहृतः ॥ इन प्रारंभिक श्लोकों से इसका पुरा पता मिलता है । उन्होंने सागारधर्मामृत के मंगलाचरण में ही प्रतिज्ञा के समय 'तद्धर्मरागिणां' ऐसा सागारों का बडे गहजब का विशेषण देके अपने सूक्ष्म दूरगामी तत्त्वदृष्टि का ही परिचय दिया है। २५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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