Book Title: Ashadharji aur Unka Sagardharmamrut Author(s): Suparshvamati Mataji Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 3
________________ २५८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात् । पायं पायमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यर्हतः ॥ मिथ्यात्वकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशेः कुपथयाननिदानभूते । आशाधरोक्तिलसदंजनसम्प्रयोगैरच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥ ( 'कुमार्ग से भरे हुए संसाररूपी बन में जो एक श्रेष्ठ मार्ग था उसे छोडकर मैं बहुत काल तक भटकता रहा । अन्त में बहुत थककर किसी तरह काललब्धिवश अब जिनवचनरूप क्षीरसागर से उद्धृत किये हुए धर्मामृत को (प्रस्तुत पंडितजी का ग्रन्थ का संदर्भ) सन्तोषपूर्वक पी पीकर और विगतश्रम होकर अर्हन्त भगवान का दास होता हूं और उस भूले मार्ग को पाता हूं । मिथ्यात्वकर्मपटल से ढकी हुई मेरी दोनों आंखें— जो कुमार्ग में ही जाती थी - आशाधरजी के उक्तियों के विशिष्ट अंजन से स्वच्छ हो गईं। इसलिए अब मैं सत्यय का आश्रय लेता हूं । ' इसी तरह पुरुदेव चम्पू के अंत में आंखो के बदले अपने मन के लिए कहा है । मिथ्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिन् आशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने । अर्थात् मिथ्यात्व के कीचड से गंदले हुए मेरे इस मानस में जो कि अब आशाधरकी सूक्तियों की निर्मली के प्रयोग से प्रसन्न या स्वच्छ हो गया है। भव्यजन कण्ठाभरण में भी आशाधरजी की इसी तरह प्रशंसा की है कि, उनकी सूक्तिया भवभीरू गृहस्थों और मुनियों के लिए सहाय्यक हैं । ऐसी किवदन्ती भी है कि उन के समीप ३०० त्यागी मुनी अध्ययन करते थे । उनकी विद्वत्ता का वर्णन क्या किया जाय ? जो मानव दर्शन मोहनीय का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने पर तथा चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम होने पर पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त होकर हिंसादि पांचो पापों का सर्वथा त्याग करता है उसे मुनि या अनगार कहते हैं । तथा जों सम्यग्दृष्टि एकदेश पांच पापों का त्याग करता है वह श्रावक या सागार कहलाता है । इस श्रावक को मूल पाक्षिकाचार, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमाएं तथा अन्तिम सल्लेखना समाधि इन मूलगुण तथा उत्तर गुणों का सागारधर्मामृत में सुविस्तृत निरूपण किया गया है । कुल आठ अध्यायों में गृहस्थ के धर्म का निरूपण किया है । प्रथमोऽध्याय का सारांश जिस प्रकार वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों की विषमता से प्राकृतादि चार प्रकार के ज्वर उत्पन्न होते हैं और उन ज्वर के द्वारा आतुर प्राणि हिताहित विचार से शून्य होकर अपथ्य सेवी बन जाता है । उसी प्रकार मिथ्यात्व के द्वारा व्याप्त अज्ञानी जीव अज्ञान भाव के निमित्त से होनेवाली आहार-भयमैथुन परिग्रह की अभिलाषा रूप चार संज्ञाओं के वशीभूत हुवा स्वानुभूति से पराङ्मुख होकर विषय सेवन को ही शांति का उपाय समझकर निरंतर रागद्वेष के कारण स्त्री आदि इष्ट तथा दुर्भोजनादि अनिष्ट विषयों में प्रवृत्त हो रहे हैं । प्राय: करके संसारी प्राणी अनादि काल से बीज अंकुर के समान अज्ञान के द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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