Book Title: Ardhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 8
________________ चीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य , फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, साहित्य न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। यह सत्य दार्शनिक-चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों है कि इस साहित्य को अन्तिम रूप वीरनिर्वाण सम्वत् ९८० में वलभी पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि से अध्ययन में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ। किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि अर्धमागधी-आगम-साहित्य विद्वान् मित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अर्धमागधी-आगम का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल साहित्य ईसवी सन् की पाँचवी शताब्दी की रचना है। यदि अर्धमागधी की रचना है। आगम ईसा की पाँचवी शती की रचना हैं, तो वलभी की इस अन्तिम अर्धमागधी-आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर वाचना के पूर्व भी वलभी, मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो परम्परा में हमें स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णि एवं वाचनायें हुई थीं उनमें सङ्कलित साहित्य कौन सा था? उन्हें यह स्मरण तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर- परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को सङ्कलित, सुव्यवस्थित और साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बरसम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारूढ़) किया गया था, अत: यह किसी परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी भी स्थिति में उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता है। सङ्कलन और निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक है, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है। पुन: आगमों में विषय-वस्तु, भाषा आधारित नहीं हैं। उनमें दिया गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानाङ्ग, स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि सङ्कलन और सम्पादन के समवायाङ्ग, नन्दी आदि अर्धमागधी आगमों और उनकी व्याख्याओं समय उनकी मौलिकता को यथावत् रखने का प्रयत्न किया गया है, एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु का जो विवरण है वह उन ग्रन्थों अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त ही हो जाता और के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन में वर्णित है। दूसरे, आगम-ग्रन्थों की विषय-वस्तु में कालक्रम से क्या परिवर्तन महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर-परम्परा के उपर्युक्त आगम-ग्रन्थों से जाता। यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है अंश हैं, किन्तु प्रथम तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें कि किस काल में किस आगम-ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अत: इस आधार पर सम्पूर्ण अलग हुई है। आचाराङ्ग में आचारचूला और निशीथ के जुड़ने और अर्धमागधी - आगम-साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बड़ी पुन: निशीथ के अलग होने की घटना, समवायाङ्ग और स्थानाङ्ग में भ्रान्ति होगी। समय-समय पर हुए प्रक्षेप, जाताधर्मकथा के द्वितीय वर्ग में जुड़े हुए अर्धमागधी -आगम-साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के । अध्याय, प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है। किन्तु । अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह परिवर्तन- इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनका 'त' तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है। इनमें श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित है। आचाराङ्ग के प्रकाशित प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल __ स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य लगभग के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृताङ्ग का 'रामपुत्ते' एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, पाठ चूर्णि में 'रामाउत्ते' और शीलाङ्क की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया। परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी अत: अर्धमागधी-आगमों में, महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर आगम-साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। उनकी प्राचीनता पर सन्देह नहीं करना चाहिये। अपितु उन ग्रन्थों की वस्तुत: अर्धमागधी-आगम विशेष या उसके अंश विशेष के विभिन्न प्रतों एवं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिये। विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली वस्तुत: अर्धमागधी-आगम-साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी और स्थानाङ्ग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि निम्न सीमा ई०सन् की पाँचवीं शताब्दी है। वस्तुतः अर्धमागधी वीरनिर्वाण सं० ६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अत: आगम-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश-विशेष का विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानाङ्ग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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