Book Title: Ardhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 41
________________ - यतीन्द्रमरिमरकंगन्य - जैन आगम एवं साहित्य - उनमें जो सैद्धान्तिक गहराइयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं। रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, दिगम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अर्धमागधी आगमों का कर्तृत्व अज्ञात अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म अर्धमागधी आगमों में प्रज्ञापना, दशवकालिक और छेदसूत्रों के के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और प्रामाणिक रूप कर्तृत्व को छोड़कर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन जानकारी प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि दशवैकालिक आर्य शय्यम्भवसूरि हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदास जी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति बुद्धि से उनके अध्ययन की। अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी मानी जाती है, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्रपात्र के उल्लेखों को पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लिखित महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बारे में हम अन्धकार में ही वस्त्र-पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ हैं। सम्भवत: उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस है? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन बात का पूर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ हैं। शौरसेनी और पूर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य किया। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हिन्दू-पुराणों के कर्ता के रूप को यथार्थ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है युवा-विद्वान् मेरी में केवल वेद व्यास को जाना जाता है। यद्यपि वे अनेक आचार्यों इस प्रार्थना पर ध्यान देगें। की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं। जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल इसके विपरीत शौरसेनी आगमों की मुख्य विशेषता यह है कि में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी उनमें सभी ग्रन्थों का कर्तृत्व सुनिश्चित है। यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन शुबिंग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है। अर्धमागधी आगमों रसिकलाल कापड़िया में 'A History of the Cononical Literature of में तो यहाँ तक भी हुआ है कि कुछ विलुप्त कृतियों के स्थान पर the Jainas' नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई। इस सम्बन्ध में से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में किया जाता है। इसके पश्चात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ 'प्राकृतही की जा चुकी है। अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक साहित्य का इतिहास' भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पार्श्वनाथ दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय विद्याश्रम शोध-संस्थान द्वारा 'जैन-साहित्य का बृहद् इतिहास' योजना संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध हैं, जब इनका अध्ययन किया गया के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम तीनों खण्डों में प्राकृत आगम-साहित्य तो पता चला कि वे लोकाशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये हैं। यद्यपि इससे देवेन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक 'जैनागम : मनन और मीमांसा' भी एक यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह स्थिति सभी अर्धमागधी ___महत्त्वपूर्ण कृति है। मुनि नगराजजी की पुस्तक 'जैनागम आगमों की है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को और पाली-त्रिपिटक' भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से आसानी से पहचाना जा सकता है, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए महत्त्वपूर्ण है। पं. कैलाशचन्द्र जी द्वारा लिखित 'जैन-साहित्य के प्रक्षेपों को जानना जटिल है। इतिहास की पूर्व पीठिका' में अर्धमागधी आगम-साहित्य का और आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वसनीयता पर प्रश्न- किन्तु उसमें निष्पक्ष दृष्टि का निर्वाह नहीं हुआ है और अर्धमागधी चिह्न उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो आगम-साहित्य के मूल्य और महत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है गया है। कि आगम-साहित्य की विषय-वस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया। पूज्य आचार्य श्री जयन्तसेनसूरि जी ने 'जैन-आगम-साहित्य यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग-ग्रन्थ की श्लोक-संख्या : एक अनुशीलन' कृति की सर्जना जनसाधारण को आगम-साहित्य एक दूसरे से क्रमश: द्विगुणित रही थी अथवा 14 वें पूर्व की विषय-वस्तु की विषय-वस्तु का परिचय देने के उद्देश्य की है, फिर भी उन्होंने इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता पूरी प्रामाणिकता के साथ संशोधनात्मक दृष्टि का भी निर्वाह था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है। किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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