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नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलिभद्र भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वों का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये ।
इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अङ्गों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अङ्ग ही सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य को पूर्णतः सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमशः विलोप होना प्रारम्भ हो गया। फलतः उसकी विषय-वस्तु को लेकर अङ्गबाह्य ग्रन्थ निर्मित किये जाने लगे।
चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
द्वितीय वाचना
आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर के निर्वाण के लगभग ३०० वर्ष पश्चात् उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्राट् खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है— मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमें श्रुत के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था। वस्तुतः उस युग में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरु-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप में ही चलती थी। अतः देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति दोष के कारण उसमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी। अतः वाचनाओं के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को सुव्यवस्थित किया जाता था। कालक्रम में जो स्थविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं उनके आगमिक सन्दर्भों की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसका निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था। खण्डगिरि पर हुई इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोजा गया थाइसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
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तृतीय वाचना
आगमों की तृतीय वाचना वी. नि. संवत् ८२७ अर्थात् ई.सन् की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई। इसलिए इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना जाता है। माथुरी वाचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में है। प्रथम मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया है। अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल में नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे। अतः एक मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया।
सूत्र
चतुर्थ वाचना
चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है जिस समय
Princi
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उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि संघ मथुरा में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। इसे नागार्जुनीय वासना भी कहते हैं।
आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना समकालिक हैं। नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवन्त का उल्लेख है। इससे यह फलित होता है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे। नन्दी स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है। इसका एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कन्दिल के द्वारा सम्पादित आगम ही मान्य किये जाते थे और इस यापनीय सम्प्रदाय का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने तो स्त्री- निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे । मूलाचार, भगवतीआराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों, नियुक्तियों आदि की सैकड़ों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे। हम यह भी पाते हैं कि यापनीय प्रन्थों में जो आगमों की गाथाएँ मिलती हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी में है मात्र यही नहीं अपराजित की भगवती आराधना की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण दिये गये हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में हैं।
इससे यह फलित होता है कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ गया था। दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवती आराधना की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें वल्लभी वाचना के वर्तमान आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है। साथ ही अचेलकत्व की समर्थक कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं। कुन्दकुन्द के अन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों, निर्युक्ति आदि की कुछ गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ मिलती हैं- सम्भवतः उन्होंने ये गाथाएँ यापनीयों के माथुरी वाचना के आगमों से ही ली होगीं ।
एक ही समय में आर्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हों। पं. कैलाशचन्द्रजी ने जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका (पू. ५००) में माधुरी वाचना की समकालीन वल्लभी वाचना के प्रमुख रूप में देवर्धिगणि
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varmaan 838 maromana
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