Book Title: Ardhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ चन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो । आज उपलब्ध विभिन्न श्वेताम्बर- अर्द्धमागधी-आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ मित्रता हो, किन्तु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्द्धमागधी के लक्षण प्रमुख होते हुए भी कहीं-कहीं आंशिक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव आ ही गया है। इसी प्रकार दिगम्बर- परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में एक ओर अर्द्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग ६० प्रतिशत शौरसेनी एवं ४० प्रतिशत महाराष्ट्री पायी जाती है— जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार का प्रथम संस्करण। ज्ञातव्य है कि इसके परवर्ती संस्करणों में शौरसेनीकरण अधिक है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान एक महत्त्वपूर्ण बात यह मिली कि जहाँ शौरसेनी प्रन्थों में जब अर्द्धमागधी आगमों के उद्धरण दिये गये, तो वहाँ उन्हें अपने अर्द्धमागधी रूप में न देकर उनका शौरसेनी-रूपान्तरण करके दिया गया है। इसी प्रकार महाराष्ट्री के ग्रन्थों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री-रूपान्तरण कर दिया गया। उदाहरण के रूप में भगवती आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्द्धमागधी रूप में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने शौरसेनी प्राकृत के "यापनीय तन्त्र'' नामक ग्रन्थ से "ललितविस्तरा " में जो उद्धरण दिया, वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है। इस प्रकार चाहे अर्द्धमागधी आगम हो या शौरसेनी-आगम, उनके उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णतः अर्द्धमागधी है और न ही शौरसेनी । अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा परवर्तीीं है। इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर परवर्ती अपभ्रंश का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम-तुल्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव - होता है, मात्र इतना ही नहीं कभी-कभी इन प्रभावों के कारण इन ग्रन्थों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है। आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डॉ. के. ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्द्धमागधी आगम जैसे - आचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न प्रारम्भ किया है क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में "लोय" और "लोग" या "आया" और "आता" दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार Jain Education International कहीं क्रिया रूपों में भी "त" श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी, इसका भी डॉ. चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया है कि अर्द्धमागधी "खेतन" शब्द किस प्रकार "खेयन्न" बन गया और उसका जो मूल "क्षेत्रज्ञ" अर्थ था वह बदलकर "खेदज्ञ” हो गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी क्रम में मैंने भी आगम-संस्थान उदयपुर के डॉ. सुभाष कोठारी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों से पाठान्तरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर श्री जौहरीमल जी पारख ने उठाया है। श्वेताम्बर - विद्वानों में आयी इस चेतना का प्रभाव दिगम्बर-विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्य श्री विद्यानन्द जी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पूर्णतः शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम कार्य बलभद्र जैन द्वारा सम्पादित समयसार, नियमसार आदि का कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है। यद्यपि दिगम्बर - परम्परा में ही पं. खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया। आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप के पुनः संशोधन की जो चेतना जागृत हुई है, उसका कितना अधित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में करूँगा। सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत आगम-ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार के परिवर्तन आये हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णतः समझे बिना केवल एक-दूसरे के अनुकरण के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन सिद्ध करने हेतु किसी ग्रन्थ के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कर देना सम्भवतः इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल निर्णय एवं इनके पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा और इससे कई प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते हैं। किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैनाचार्यों एवं जैन- विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम-ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन किया है। जैन आगमों की वाचना को लेकर जो मान्यताएं प्रचलित है, उनके अनुसार सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में वीर- निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम वाचना हुई। इसमें उस काल तक निर्मित आगम-ग्रन्थों, विशेषतः अंगआगमों का सम्पादन किया गया। यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी रहा होगा। इसके पश्चात् लगभग ई. पू. प्रथम शती में खारवेल के शासन काल में उड़ीसा में द्वितीय वाचना हुई । यहाँ पर इसका स्वरूप अर्द्धमागधी रहा होगा, १५३inin For Private & Personal Use Only Si www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41