Book Title: Arddhamagadhi Bhasha ka Udbhav evam Vikas Author(s): Sagarmal Jain Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 8
________________ मार्च २०१० प्राकृतों के पारस्परिक सम्बन्ध समझाने के लिए जब 'शेषं शौरसेनीवत्' आदि सूत्र आते हैं. उनका तात्पर्य भी मात्र यही है कि उसके विशिष्ट नियम समझाये जा चुके हैं, शेष नियम शौरसेनी आदि किसी भी आदर्श प्राकृत के समान ही है । उदाहरण के रूप में हेमचन्द्राचार्य जब मागधी या आर्षप्राकृत के सम्बन्ध में यह कहते हैं कि - ‘शेषं प्राकृतवत्' तो उसका तात्पर्य यह नहीं है कि मागधी प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत या सामान्य प्राकृत से विकसित हुई । क्षेत्रीय बोलियों में चाहे कालक्रम में परिवर्तन आये भी हों और अपनी समीपवर्ती बोलियों से प्रभावित हुई हो, किन्तु कोई भी किसी से उत्पन्न या विकसित नहीं हुई है । सभी प्राकृतें अपनी क्षेत्रीय बोलियों से विकसित हुई है । यद्यपि क्षेत्रीय बोलियों के रूप में प्राकृतों का कालक्रम निश्चित करना कठिन है । किन्तु अभिलेखों एवं ग्रन्थों के आधार पर इन विभिन्न प्राकृतों के कालक्रम के सम्बन्ध में विचार किया जा सकता है : ९१ १. अशोक के अभिलेखों की प्राचीन मागधी उपलब्ध प्राकृतों में सबसे प्राचीन है। उससे कुछ परवर्ती खारवेल के अभिलेख की भाषा है । जिसमें मागधी के साथ-साथ उड़ीसा की तत्कालीन क्षेत्रीय बोली का प्रभाव है । ई.पू. तीसरी शताब्दी से प्रथम शती तक इनका काल है । २. इन अभिलेखों के लगभग समकालीन या कुछ परवर्ती पाली त्रिपिटक एवं अर्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ आचारांग, इसिभासियाई आदि के पूर्ववर्ती संस्करणों की भाषा है । इसके प्रमाण कुछ प्राचीनतम हस्तप्रतों में आज भी अधिकांशतः सुरक्षित हैं । इनका काल भी प्रायः पूर्ववत् ई.पू. ही है । ३. तीसरे क्रम पर प्रज्ञापना आदि परवर्ती अर्धमागधी आगमों की तथा आगमतुल्य शौरसेनी के ग्रन्थों की एवं मथुरा के प्राचीन अभिलेखों की भाषा है । पैशाची प्राकृत भी इन्हीं की प्राय: समकालिक है । इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतें भी इसी काल की है। इस काल का प्राचीन आदर्श ग्रन्थ 'पउमचरियं' है । इनका काल ईसा की प्रथम शती से पांचवीं शती के मध्य माना जाता है ।Page Navigation
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