Book Title: Arddhamagadhi Bhasha ka Udbhav evam Vikas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 10
________________ मार्च २०१० सिद्धान्तकोश भाग २ पृ. ४३१ पर भगवान के दिव्यध्वनि की चर्चा करते हुए दर्शन-प्राभृत एवं चन्द्रप्रभचरित (१८ / १) के सन्दर्भ देकर लिखते हैं कि 'तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगधदेश की भाषारूप और आधी सर्वभाषारूप होती है' । आचार्य प्रभाचन्द्र नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखते हैं कि- 'उस दिव्यध्वनि का विस्तार मागध जाति के देव करते हैं, अतः अर्धमागधी देवकृत अतिशय है' । श्रीविद्यासागरजी के शिष्य श्रीप्रमाणसागरजी अपनी पुस्तक जैनधर्म-दर्शन (प्रथम संस्करण) पृ. ५० पर लिखते हैं कि - 'भगवान महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ' आदि । इस प्रकार जैन परम्परा समग्र रूप से यह स्वीकार करती है कि भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी थी । क्योंकि उनका विचरण क्षेत्र प्रमुखतया मगध और उसका समीपवर्ती क्षेत्र था । यही कारण था कि उनकी उपदेश की भाषा आसपास के क्षेत्रीय शब्दरूपों ये युक्त मागधी अर्थात् अर्धमागधी थी । वक्ता उसी भाषा में बोलता है जो उसकी मातृभाषा हो या श्रोता जिस भाषा को जानते हों । अतः भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी ही रही होगी । ९३ इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्धमागधी भाषा का उद्भव ई.पू. पांचवीं - छट्ठी शती में भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा के रूप में हुआ, जो कालान्तर में अर्धमागधी आगम साहित्य की भाषा बन गई । जब हम अर्धमागधी भाषा के विकास की बात करते हैं तो उस भाषा के स्वरूप में क्रमिक परिवर्तन कैसे हुआ और उसमें निर्मित साहित्य कौन सा है, यह जानना आवश्यक है । मेरी दृष्टि में यह एक निर्विवाद तथ्य है कि व्याकरण के नियमों से पूर्णतः जकड़ी हुई संस्कृत भाषा को छोड़कर कोई भी भाषा दीर्घकाल तक एकरूप नहीं रह पाई । स्वयं संस्कृत भी दीर्घकाल तक एकरूप नहीं रह पाई । उसके भी आर्ष संस्कृत और परवर्ती साहित्यिक संस्कृत ऐसे दो रूप मिलते ही हैं । वे सभी भाषाएं जो लोक बोलियों से विकसित होती है । सौ-दो सौ वर्ष तक भी एकरूप नहीं रह पाती हैं । वर्तमान हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्यिक रूपों में कैसा परिवर्तन हुआ, यह हम सामान्य रूप से जानते ही हैं । अतः अर्धमागधी भी चिरकाल तक एकरूप नहीं रह पायी । जैसे-जैसे जैन धर्म का विस्तार उत्तर-पश्चिमी भारत में हुआ, उस पर शौरसेनी

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