Book Title: Apbhramsa Chariu Kavyo ki Bhashik Samrachnaye Author(s): Krushnakumar Sharma Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 4
________________ अपभ्रंश चरिउकाव्यों को भाषिक संरचनाएँ ५०५ . किं गयणाउ अमियलवविहहि । कि कप्पूरपूरकण निडिहिं । कि सिरिखंड बहलरमसीयर । मयरद्धयबंधवससहरकर ॥ 'कि"...""संरचना का यह आवर्तक कवि के आवेग का परिचायक है। करकंडुचरिउ में 'मानो' संरचना का आवर्तन है गुरुघायवडणे णिग्गय फुलिंग णं कोहवसई अहिजललिंग। तहे गंठिहे वयणहो बहलकार ता णिग्गय तक्खणि सलिलधार । पढमउ भुभुक्कइ णिग्गमेइ णं मेइणि भीए उव्वमेइ । णिग्गंती बाहिरि सा विहाइ महि भिदिवि फणिवइधरिणि पाइँ॥ परिसहइ सावि भूमिहिं मिलंति गंगाणइ णं खल खल खलंति ।-(करकंडुचरिउ,४-१४) विशेषता इन संरचनाओं में प्रयुक्त शब्दों के चयन की है। उपर्युक्त प्रसंग में 'णं........' संरचना का आवर्तन है। 'णायकुमारचरिउ' का निम्नलिखित उद्धरण इस बात को सिद्ध करता है कि अपभ्रंश काव्यों के अधिकांश वर्णन प्रसंगों में अलंकार संरचना (णं.......) आवर्तित हुई है णं घरसिहरग्गहि सग्गु छिवइ णं चंद अमियधाराउ पियइ । कुंकुमछडए णं रइहि रंगु णावइ रक्खालिय सुहपसंगु। विरइय मोत्तिय रंगावलीहिं जं भूसिउ णं हारावलीहि । -(णायकुमारचरिउ, १) कभी एक ही कथ्यांश के लिए अनेक उत्प्रेक्षा संरचनाएँ प्रयुक्त की जाती हैं। कभी एक कथ्य के विविध परिप्रेक्ष्यों को आवर्तित उत्प्रेक्षा संरचनाओं में उजागर किया जाता है, वर्णन के प्रसंगों की यह सामान्य प्रवृत्ति है। णायकुमारचरिउ में कवि एक उपवाक्य में अनेक पदबन्धों का मध्य प्रशासन (Mid Branching) करता है, इस प्रकार अनेक क्रियाविशेषणों का नियोजन शीघ्रतापूर्वक होने वाले अनेक परिवर्तनों अथवा क्रियाओं को चित्रात्मकता के साथ प्रस्तुत करता है। इन पदबन्धों में प्रयुक्त शब्दावली भी चयन का प्रमाण है, संरचना भी समान है अतएव आवतित भी घडहडइ कडयडइ, कोवेण तायडइ। लोहेहि सिक्खवइ, मायाउ दक्खवइ । माणेण कयघट्ट, कयसोउ बहु दट्ट । -(मयणपराजयचरिउ, २. ५१) इस उद्धरण में १, २, ३, ४, पदबन्ध हैं, ६ प्रमुख क्रियापदबन्ध है। व्यक्ति उच्छलित भावों की अभिव्यक्ति में भी संरचना-आवर्तन-विधान देखा जा सकता है। अपभ्रंश के कवियों ने इस संरचना-प्रकार का भी प्रयोग किया हैं । मयणपराजयचरिउ में बन्दी (दूत) कहता है वज्जघाउ को सिरिण पडिच्छइ । असिधारापहेण को गच्छइ ।। को जमकरणु जंतु आसंघइ । को भुवदंडई सायर, लंघइ ॥ को जममहिससिंह उप्पाडइ । विफ्फुरंतु को दिणमणि तोडइ । आसीविसमुहि की करू छोहइ । धगधगंत धुववहि को सोवइ ॥ Bato Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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