Book Title: Apbhramsa Bhasha Baddha Vajrasami Charit
Author(s): Ramnik Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 7
________________ [53] विसय-सुक्खेहि जीअ णंत दुक्खई सहइ चउगईअ संसारि । संजमि पावए णंत सुक्खई, केवलि कहीं विचारि ॥ ४२ ॥ भो भविउ० सुणवि उवएसु बहु लोअ पडिबुद्धा, तीए पडिवन्नु चारित्तु । अमिय-सरिसेहिं क्यणेहि पणासीउ, कम्म-विसय-मिच्छत्तु ॥४३॥ भो भविउ० अन्न वरसि परिवारु भणइ, समण सीअंति दुभिक्खि । । देस-नगर-पुर-माग-भागा, गणिहिं लेसु सुभिक्खि ॥४४॥ भो भविउ० जेअ साहम्मि-वत्सल्लि बहु उज्जुआ, चरण-करण-सज्झाय । तित्थ-पभावग ते नर अक्खिय, आण कुणई जिणराय ॥४५॥ भो भविउ० तेहिं मनिउ नाहु अरहंतु अनु सह गुरु सिरि धम्मवरु, तरिउ तेहिं दुत्तर वि सायरु । थिर-सम्मत्त चरित्त-धर, पत्तु मुणवि जे कुणई आयरु ॥ साहम्मिय सुअ-भणिय-विहिं, जे वच्छल्लु कुणंति । धम्मु पयासिउ जिण-भणिउ, ते सिव-सुह पावंति ॥४६|| भो भविउ० इय चिंतवि पटि समण चडावीऊ, जाव गयणम्मि गच्छेइ । ता शिखा छेदिऊ भणइ सिज्झागरु, राखि पहु सीसु करेई ॥४७॥भो भविउ० सो चडावीउ गयण-तले जाइ सुभिक्खि पुरि नयरी ।। बुद्धोवासगु राउ अमाणए संघु जिण-पूअ निवारी ॥४८॥ भो भविउ० अह पभावग अट्ठ जिण भणिउ, पावयणी धम्मकही वाय लद्धि नेमित्ति तवसी अ । विज्जासिद्ध कई अहूअ दृढ़-समत्त सुअनाणि संसिअ ॥ अवमाणिय जिण-सासणह, जे उ विविक्ख करंति । सत्तिहिं हुंती तिज्ज नर, भव-सायरि निवडंति ॥४९॥ भो भविउ० इय सुमरवि गुरु गयणि चलिओ, नयरि माहेसरी पत्तु । कुसम मगीउ हिमवंत गिरे, सिरिदेवि दीवु आवंतु ॥५०|| भो भविउ० सहसपत्ते तीए आपीउ कमले कुंभ पुj घालेइ । गयण-तले नाचंति बहु देविहि, जिणवर-भुवणि आवेई 1॥५१||भो भविउ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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