Book Title: Anusandhan 2014 12 SrNo 65
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 14
________________ पछीथी कांई राजकारणनी अने लडाईनी पण चर्चा करी छे. (२३) कवि उदयरल ए मध्यकालना एक श्रेष्ठ गुर्जर साधु-कवि छे. तेमनी रचनाओ भक्तिभावथी छलकाती, पदलालित्य तथा अलङ्कार आदिथी समृद्ध अने प्रसादमधुर होय छे. तेओ पण 'रत्न' शाखाना अग्रणी साधु, उपाध्याय छे. तेमणे तेमना गच्छपति दानरत्नसूरि उपर लखेल आ पत्र पूर्णतः व्रजनी छांट धरावती हिन्दी पद्यात्मक छे. मध्यकालीन काव्यरचनानी जे चमत्कृतिओ होय ते अहीं प्रत्येक कडीमां प्रगट थाय छे, वर्णसगाई, सागर-नागर-आगर-रतनागर - एम आदिप्रास, आम उत्तरोत्तर रचनानी जमावट थती आवे छे. नवमो दूहो ३६ गुणोनुं सूचन करे छे: प्रतिरूप आदि १४, १० यतिधर्म, १२ भावना - एम ३६ गुण. - ओ वांचतां विजयलक्ष्मीसूरिकृत पूजानी नीचेनी कडी याद आवे : "पडिरूवादिक चौद गुणधारी, क्षान्ति प्रमुख दश धर्म, बार भावना-भावित निज आतम, ए छत्रीश गुणवर्म." खरेखर तो दरेक दूहानो अर्थ लखीए अने तेमांनी काव्य-चमत्कृति खोलीए, तो ज साचो आस्वाद पामी शकाय. एक १८मो दूहो ज जुओ : "तपागच्छ ते समुद्र, गच्छपति तेमां भरती लावनार चन्द्र-सरीखा; ए आपणने बमणी दोलत ज आपे !" आ पछीना सवैया-त्रेवीसा तथा एकत्रीशाना छन्दो तो कोई नीवडेल चारणकविनी ने तेनी छन्द-रचनाओनी भ्रान्ति करावे तेवा छे. उदयरत्नकृत 'जोगमायानो छन्द' तो 'अनुसन्धान'मां अगाऊ प्रकाशित छ ज. अनेक जैन कविओए आवी व्रजभाषा-मढेली हिन्दी छन्द-रचनाओ करी छे, अने मध्यकाळने कविताथी छलकावी दीधो छे. आमां ४ तो चित्र-बन्ध-काव्यो छे : स्वस्तिकबन्ध, कमलबन्ध, अष्टारचक्रबन्ध अने शरावसम्पुटबन्ध. कर्ताना स्वहस्तना आ पत्रमा चारे बन्धकाव्योना चित्राकारो पण आलेखेला जोवा मळे छे. ओमां अष्टारचक्रवाळा छन्दमां दरेक पादना आद्य अक्षरोनी गुंथणीथी गुरुनु नाम पण रचाय छे. पछीना दूहाओमां पत्रप्राप्तिनी वात तथा वृत्तान्तनिवेदन छे, परन्तु दूहा एटला बधा स्पष्ट-सुग्रथित छे के कविनुं सर्जक चित्त अत्यन्त सुघड होवानी छाप पड्या विना नथी रहेती. गद्यात्मक निवेदनमा 'वृद्ध साजन', 'लघु साजन' - एवा शब्दो छे तेनो भाव एवो जणाय छे के आखो संघ/समाज जमे ते वृद्ध साजन, अने मर्यादित वर्ग जमे ते लघु साजन. प्रभावना-ल्हाणी-तपस्यादिनी वर्णन उपरांत, पादरी, पादशाहपुर, उमेटा - आ बधां गामोमां वर्तता साधुओ तथा त्यांनी वातो विषे विगतो छ, अन्तिम ५ दूहामां, कविना चित्तनी, गुरुनां दर्शननी आतुरताउत्कण्ठानुं रोचक बयान वांचतां आपणुं हैयुं पण प्लावित थई जतुं अनुभवाय छे. आ पत्रने उत्तम/श्रेष्ठ पत्र गणवो जोईए. आनन्द ए वातनो छे के उदयरत्न जेवा आपणा मान्य-प्रिय कविनी एक नवतर रचना आपणने सांपडी रही छे. (हस्ताक्षरोनां दर्शन प्रथम मुखपृष्ठ पर थाय छे.) (२४) कवलागच्छ ए उपकेशगच्छनुं नाम छे, अथवा तेनी शाखा छे. आ गच्छमां आचार्य थाय तेनुं नाम 'देवगुप्तसूरि' ज रखातं. अने ते प्रथा २०मा शतकमां पण चालु होवानुं जाणवा मळे छे, आ पत्रथी. आचार्य 'ककुदाचार्यसन्तानीय' गणाता. गच्छपति होवाथी ते 'चतुरसीती गच्छाधिराज'नुं बिरुद पण धरावता. पत्र नानो छे. छतां तेमां बे-एक कल्पनाओ मजानी छे. जोईए : दूहो २ - "माबाप मात्र जन्म आपे, तमे (गुरुए) तो चोपगामांथी बेपगो कयों ! - बाळक भांखोडियाभेर चाले ते चोपगो गणाय; के पछी परणे ते पण चारपगो ज; तेवाने साधु बनावी तमे द्विपद-बेपगो बनाव्यो !" दूहो ४ - "करै कीट तै भुंग" कीडो (ईयळ) भृङ्ग-भ्रमर बनी मुक्त विहरे तेम, कीडा जेवा मने गुरुए 'गुरु' जेवो बनावी दीधो !" (२५) साव नानो पत्र, पण तेनी प्रस्तुतिने कारणे विलक्षण बनी रहे छे. शिष्य अने संघ गुरुने केवा लाड अने अधिकारथी टकोर करे छे ! जोवा जेवं छे: "तमे शाह सहसमल अने संपूरदेना दीकरा; मालवाना वतनी; त्यां उज्जैनी अने शाहजिहांपुर तरफ ज विचरो ! पोतानां वतननो मोह न छोडो !

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