Book Title: Anusandhan 2002 03 SrNo 19 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 4
________________ निवेदन 'अनुसन्धान ना प्रणेता सद्गत हरिवल्लभ भायाणीनी अनुपस्थितिमां, तेमना स्मरणांक पछीनो आ प्रथम अंक छे. अमना देश-परदेशना व्यापक अने जीवंत संपर्कोनो आ पत्रिकाने पण मळतो लाभ हवे शक्य नथी रह्यो, ए वास्तविकता छे. परिणामे अनेक स्थानोए थतां शोध-कार्योनी माहिती जेम नहि सांपडे, तेम विविध शोधकोना लेखो पण हवे जरा वधु दुर्लभ थवाना. आ संयोगोमां पण आ पत्रिका चाल राखवानो निर्णय छे ज. एवी श्रद्धा छे के आ चालु रहेशे तो आपोआप प्रतीति थतां लेखादि मळवा लागशे. एक ज रस छे के आ निमित्ते केटलीक रचनाओ प्रकाशित थाय अने कोई जिज्ञासुने आवी प्रवृत्तिमां भाग लेवानुं क्यारेक मन थाय. विद्वान मुनिवरोने अने जैन-अजैन, देशना तथा परदेशना विद्वानोने, संशोधकोने, अभ्यासुओने, आ पत्रिकानां धोरणोने अनुरूप एवा शोध-लेखो, कृति-संपादनो, ढूंक नोंधो, संशोधन अने प्रकाशनने लगती माहितीओ मोकलवानो हार्दिक अनुरोध तथा आमंत्रण छे. एक आनुषंगिक स्पष्टता ए करवानी के 'अनुसन्धान', प्रकाशन करनारुं ट्रस्ट मात्र दान उपर नभतुं ट्रस्ट छे; व्यक्सायी ट्रस्ट नथी. पत्रिकानी देश-परदेशमां जती नकलो (लगभग १००/-) विना मूल्ये भेट मोकलाय छे; पोस्टिंगनो खर्च पण ट्रस्ट भोगवे छे. तेथी आ पत्रिकामा छपाता लेखो-बदल पुरस्कार आपवानुं ट्रस्ट माटे अशक्य छे. फक्त संशोधन-क्षेत्रनी सेवा ए ज आ प्रवृत्तिनो हेतु अने आशय छे. आ उमदा प्रवृत्तिमा सहुनो सहयोग मळशे तेवी आशा सह . विजयशीलचन्द्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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