Book Title: Anusandhan 2002 03 SrNo 19
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ अनुसंधान-१९ ढाल ८(७)मां जिनवरे जीतेला आठ मदनां अने ढाल ९(८) मां तेमणे क्षय पमाडेलां ८ कर्मोनां नाम दर्शाव्यां छे. ढाल १०(९)मां जिनेश्वरे पूर्वभवमां आराधेलां वीसस्थानक पदोनां नाम आप्यां छे. ते पछीना दूहाओमां जिनना चार निक्षेप (८६-८७) दर्शावीने प्रतिमानी तथा मंदिरनी पण आशातना (अवमानना) करवानो निषेध (८८) कह्यो छे. ढाल ११(१०)मां तेवी १० मुख्य आशातनाओ बतावी छे. अहीं 'देव'तत्त्व- वर्णन आटोपाय छे. ९२मी कडीथी 'गुरु' तत्त्व- वर्णन चालु थाय छे. गुरु ते आचार्य, तेमना गुण ३६ छे, तेनुं स्वरूप ९३-९५मां प्ररूप्युं छे. ढाल १२-१३-१४ (११-१२-१३)मां शास्त्र वणित 'प्रतिरूपता' आदि ३६ गुणो, तेना अनुषंगे बार भावना अने २२ परिषहोनुं स्वरूप वर्णवायुं छे. पछी ढाल १५(१४)मां परीषह समभावे सहन करनार महान मुनिराजोनां नाम-वर्णन छे. ढाल १६(१५)मां आचार्यनी पछी आवनारा 'मुनि'रूप गुरुतत्त्वना २७ गुणो गणाव्या छे. १६६मा दूहामां 'धर्म' तत्त्व- स्वरूप खूब ट्रॅकाणमां पण स्पष्ट शब्दोमां दर्शावेल छे. ढाल १७(१६)थी मिथ्या देव (कुदेव)ना स्वरूपनी ओळखाण शरु थाय छे. ते ढाळ, दूहा, कवितनो सार एटलो ज छे के जेमां राग-द्वेष-मोहकाम-क्रोध वगेरे प्रत्यक्ष देखाता-अनुभवाता होय ते 'कुदेव' छे; तेवाने 'देव' लेखे स्वीकारवा ते मिथ्यात्व गणाय. क्र.७८ थी ८५ सुधी (ढाल १८(१७) सहित)मां ते ते देवोने इष्टदेव माननार प्रतिपक्षीनी 'जैन' सामे दलीलो आपवामां आवी छे. ढाल १९(१८)मां जैन द्वारा अपातो तेनो प्रतिवाद छे. तेमां जैनो ईश्वरना कर्तृत्वनो परिहार करीने बधुंज कर्मकृत होवानो सिद्धांत स्थापे छे. ९३मुं कवित्त, दूहो अने ढाल २०(१९)मां कर्मनी अदम्य ताकातनुं बयान थयुं छे. छेल्ले निष्कर्षरूपे देव-कुदेवनो विवेक निरूप्यो छे. २०४मा दूहाथी कुगुरुनो त्याग करी सद्गुरुने अपनाववानुं अने पछी (२०८) मिथ्याधर्मने त्यागवानुं शीखवे छे. ढाल २१(२०)मां पांच प्रकारनां मिथ्यात्वनुं वर्णन अने तेना सेवनथी भवभ्रमण दर्शावायुं छे. ढाल २२(२१)मां "सम्यक्त्व व्रत"ना चार आगार अने छ छींडी (छूटछाट) समजावेल छे. अने ते पछी विनोदात्मक शैलीमां कविए 'मूर्ख'नां केटलांक लक्षणो बताव्यां छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 170