________________
श्रीमती प्रितम सिंघवी : समत्वयोग
जैन धर्म, जैन दर्शन और जैन संस्कृति समभाव पर आधारित है । इसके बिना जैन धर्म निष्प्राण है । 'आचारांग' सूत्र में कहा गया है-...
“समियाए पम्मे आरिएहिं पवेइयं ।"
आत्मा की प्रशान्त निर्मल वृत्ति ही समता है । वही सम्यक् चारित्ररूप, मोक्ष का मूल है । जैन दर्शन की साधना समत्वयोग की साधना है, सामायिक की साधना है एवं समभाव की साधना है । मोक्ष का मार्ग कहीं बाहर से नहीं है, वह साधक के अन्तर चैतन्य में ही है । साधक को जो कुछ पाना है, अपने अन्दर पाना है । जैन दर्शन ने स्पष्ट शब्दों में उद्घोषणा की है कि प्रत्येक साधक के अपने ही हाथों में मुक्ति को अधिगत करने का उपाय एवं साधन है | और वह साधना क्या है ? सम्यग, दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक चरित्र । इन तीनों का समुचित रूप ही मुक्ति का वास्तविक उपाय और साधन है । ..... मैं अपनी कृत्ति में समत्वयोग से सम्बन्धित जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा गीता में निहित विचारों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने में प्रयत्नशील हूँ | कृति में सामायिक, शान्तरस, अनेकान्त दृष्टि, रत्नमय इत्यादि पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत करने का विचार है ।
श्रीमति प्रीतम सिंघवी : अनेकान्तवाद आधुनिक संदर्भ में !
अनेकान्तवाद भारतीय दर्शनों को एक संयोजन कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है। यह समन्वय, शान्ति और समभाव का सूचक है । मैं अपनी पुस्तक में अनेकान्त सम्बन्धि आधुनिक विचारों पर विशेष बल दे रही हूँ। मेरा यह भी प्रयत्न है कि किस प्रकार अनेकान्त दृष्टि के द्वारा समन्वय, शान्ति और समभाव स्थापित किया जा सकता है ।
साध्वी सुरेखाश्री : पंच परमेष्ठी : परमात्म विषयक जैन विचारणा
'पंच परमेष्ठी : परमात्म विषयक जैन विचारणा' इस विषय पर किया जा रहा यह शोध कार्य, पंच परमेष्ठी के अपूर्व रहस्यों को उद्घाटित करेगा। अर्हत्, सिद्ध,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org