Book Title: Antkruddasha Sutra ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 6
________________ | 204 - .......... जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क स्थलों पर उनके नारायण रूप का निर्देश है। पदापुराण, वायुपुराण, वामनपुराण, कर्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण. हरिवंशपुराण और श्रीमदभागवत में विस्तार से श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है। छान्दोग्य उपनिषद् में कृष्ण को देवकी का पुत्र कहा है। वे घोर अंगिरस ऋषि के निकट अध्ययन करते है। श्रीमद्भागवत में कृषा को परब्रह्म बताया है। वे ज्ञान,शान्ति. बल, एश्वर्य, वीर्य और नेज इन छह गणों में विशिष्ट हैं। उनके जीवन के विविध रूपों का चित्रण साहित्य में हुआ है। वैदिक परम्परा के आचार्यों ने अपनी दृष्टि से श्रीकृष्ण के चरित्र को चित्रित किया है। जयदेव विद्यापति आदि ने कृष्ण के प्रेमी रूप को ग्रहण कर कृष्णभक्ति का प्रादुर्भाव किया। सूरदास आदि कवियों ने कृष्ण को बाल लीला और यौवन-लीला का विस्तार से विश्लेषण किया। रीतिकाल के कवियों के आराध्य देव श्रीकृष्ण रहे और उन्होंने गीतिकाएँ व मुक्तकों के रूप में पर्याप्त साहित्य का सृजन किया। आधुनिक युग में भी वैदिक परम्परा के विज्ञों ने प्रिय-प्रवास, कृष्णावतार आदि अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। बौद्ध साहित्य के घटजातक में श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन आया है। यद्यपि घटनाक्रम में व नामों में पर्याप्त अन्तर है. तथापि कृष्ण कथा का हार्द एक सदृश है। जैन परापरा में श्रीकृष्ण सर्वगुणसम्पन्न, श्रेष्ठ चरित्रनिष्ठ, अत्यन्त दयालु, शरणागतवत्सल, धीर, विनयी, मातृभक्त, महान् वीर, धर्मात्मा, कर्तव्यपरायण, बुद्धिमान, नीतिमान और तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी हैं। समवायांग में उनके तेजस्वी व्यक्तित्व का जो चित्रण है, वह अद्भुत है. वे त्रिखण्ड के अधिपति अर्धचक्री हैं। उनके शरीर पर एक सौ आठ प्रशस्त चिह थे। वे नरवृषभ और देवराज इन्द्र के सदृश थे, महान योद्धा थे। उन्होंने अपने जीवन में तीन सौ साठ युद्ध किये, किन्तु किसी भी युद्ध में वे पराजित नहीं हुए। उनमें बीस लाख आटपदों की शक्ति थीं, किन्तु उन्होंने अपनी शक्ति का कभी दुरुपयोग नहीं किया। वैदिक परम्परा की भाँति जैन परम्परा ने वासुदेव श्रीकृष्ण को ईश्वर का अंश या अवतार नहीं माना है। वे श्रेष्ठतम शासक थे। भौतिक दृष्टि से वे उस युग के सर्वश्रेष्ठ अधिनायक थे, किन्तु निदानकृत होने से वे आध्यात्मिक दृष्टि से चतुर्थ गुणस्थान से आगे विकास न कर सके। वे तीर्थकर अरिष्टनेमि के परम भक्त थे। अरिष्टनेमि से श्रीकृष्णा वय की दृष्टि से ज्येष्त थे तो आध्यात्मिक दृष्टि से अरिष्टनेमि ज्याठ थे।" एक धर्मवीर थे तो दूसरे कर्मवीर थे, एक निवृत्तिप्रधान थे तो दूसरे प्रवृत्तिप्रधान थे। अंत : जब भी अरिष्टनेमि द्वारिका में पधारते तब श्रीकृष्ण उनकी उपासना के लिए पहुंचते थे। अन्तकदश., समवायांग, ज्ञाताधर्गकथा, स्थानांग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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