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जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क रखता है। इस श्रुतांग के आख्यानों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। आदि के पाँच वर्गों के कथानकों का संबंध अरिष्टनेमि के साथ है और शेष तीन वर्ग के कथानकों का संबंध महावीर तथा श्रेणिक के साथ है।
प्रस्तुत आगम में विविध कथाओं के माध्यम से सरल एवं मार्मिक तरीके से विविध तपश्चर्याओं का विवेचन किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि किस प्रकार व्यक्ति अपनी आत्म-साधना के द्वारा जोवन के अन्तिम लक्ष्य " मुक्ति" को प्राप्त करता है।
संदर्भ
१. विधिमार्गप्रपा- पृष्ठ ५५
२. समवायांग प्रकीर्णक, समवाय, ८६
३. नन्दीसून ८८
४. समवायांग वृति पत्र, ११२
५. वही. पत्र, ११२
६. नन्दीसूत्र चूर्णिसहित पत्र ६८
७. वही, पत्र ७३
८. वही पत्र, ६८
९. स्थानांग सूत्र १० / ११३
१०. तत्त्वार्थराजवार्तिक १/ २०, पृ. ७३
११. अंगपण्णत्त, ५१
१२. कसायपाहुड, भाग १, पृ. १३०
१३. "ततो वाचनान्तराक्षाणीमानीति सम्भावामः ।" स्थानांगवृत्ति पत्र ४८३
१४. अन्तकृदृशा मधुकर मुनि भूमिका पृ. २४
१५. द्रोणसूरि, ओघनियुक्ति, पृ. ३
१६. सुत्तं गणश्वरकथिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च ।
सुकेवलिगा कथिदं अभिण्णदेपुविकाथदं च :- मूलाचार ५/८०
१७. (क) सूत्रकृतांग- शीलांकाचार्य वृत्ति पत्र ३३६
(ख) स्थानांग सूत्र, अभयदेव वृत्ति प्रारंभ
(ग) दशवैकालिकसूत्र चूर्ण, पृ. २९ (घ) निशीथभाष्य- ४००४
१८. (क) वलहिपुराभिनयरे, देवड्डिपमुहेण समणसंध्रेण ।
पुत्थई आगमुहिको नवसय असीआओ वीराओ
अर्थात् ईस्वी ४५३ मतान्तर से ई.४६६ एक प्राचीन गाथा ।
(ख ) कल्पसूत्र - देवेन्द्रमुनि शास्त्री, महावीर अधिकार ।
१९. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए भम्नमाइक्खई सावि य णं अद्धमानही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणा-रियाणदुप्पय चउपय-मिय-पसुपक्खि - सरीसिवाणं आपणो हिय-सिव सुहयभासत्राएं परिणमई : "-- समवायांग सूत्र - ३४,२२,२३
२०. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणा चारित्रकांक्षिणम्।
अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञेः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।। - दशवैकालिक वृत्ति, पृष्ठ २२३ २१. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास - नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ.
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