Book Title: Angvijja Prakirnaka
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 3
________________ १४] જ્ઞાનાંજલિ चूर्णि-व्याख्यायें पाई जाती हैं उनको हुई । जिनके ऊपर ऐसे व्याख्याग्रन्थ नहीं हैं ऐसे आगमोंके लिये तो उनके प्राचीन-अर्वाचीन हस्तलिखित प्रत्यन्तर और उनमें पाये जानेवाले पाठभेदोंकावाचनान्तरोंका अति विवेक पुरःसर पृथक्करण करना – यह ही एक साधन है। ऐसे प्रत्यन्तरों में मिलनेवाले विविध वाचनान्तरोंको पृथक्करण करनेका कार्य बड़ा मुश्किल एवं कष्टजनक है, और उनमें से भी किसको मौलिक स्थान देना यह काम तो अतिसूक्ष्मबुद्धिगम्य और साध्य है । भगवती सूत्रकी विक्रम संवत् १११० की लिखी हुई प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रति आचार्य श्री विजय जम्बूसूरिमहाराजके भंडार में है, तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई दो ताडपत्रीय प्रतियाँ जैसलमेरमें हैं, तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई एक ताडपत्रीय प्रति खंभातके श्री शान्तिनाथ ज्ञानभंडारमें है और एक ताडपत्रीय तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई बडोदेके श्री हंसविजयजी महाराजके ज्ञानभंडारमें है। ये पाँच प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियाँ चारकुलमें विभक्त हो जाती हैं । इनमें जो प्रायोगिक वैविध्य है वह भाषाशास्त्रीयोके लिये बड़े रसका विषय है। यही बात दूसरे आगमग्रन्थोंके बारेमें भी है । अस्तु, प्रसंगवशात् यहाँ जैन आगमोंकी भाषाके विषयमें कुछ सूचन करके अब अंगविजाकी भाषाके विषयमें विचार किया जाता है । इस ग्रंथकी भाषा सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत है, फिर भी यह एक अबाध्य नियम है कि जैन रचनाओं में जैन प्राकृत-अर्धमागधी भाषाका असर हमेशा काफी रहता है और इस वास्ते जैन ग्रन्थोंमें प्रायोगिक वैविध्य नजर आता है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि जैन निग्रन्थों का पादपरिभ्रमण अनेक प्रान्तोंमें प्रदेशोंमें होनेके कारण उनकी भाषाके ऊपर जहाँ तहाँ की लोकभाषा आदिका असर पड़ता है और वह मिश्र भाषा हो जाती है। यही कारण है कि इसको अर्धमागधी कहा जाता है। यहाँ पर यह ध्यान रखनेकी बात है कि जैसे जैन प्राकृत भाषाके ऊपर महाराष्ट्री प्राकृत भाषाका असर पड़ा है वैसे महाराष्टो भाषाके ऊपर ही नहीं, संस्कृत आदि भाषाओंके ऊपर भी जैन प्राकृत-अर्धमागधी भाषाका असर जरूर पड़ा है। यही कारण है कि ऐसे बहुतसे शब्द इधर तिघर प्राकृत-संस्कृत आदि भाषाओंमें नजर आते हैं। ___अस्तु, इस अंगविजा ग्रन्थको भाषा महाराष्ट्री प्राकृत प्रधान भाषा होती हुई भी वह जैन प्राकृत है । इसो कारणसे इस ग्रंथमें हस्व-दीर्घस्वर, द्विर्भाव-अद्विर्भाव स्वर-व्यंजनों के विकार अविकार, विविध प्रकारके व्यंजनविकार, विचित्र प्रयोग-विभक्तियाँ आदि बहुत कुछ नजर आती हैं । भाषाविदों के परिचयके लिये यहाँ इनका संक्षेपमें उल्लेख कर दिया जाता है। कका विकार-परिक्खेस सं० परिक्लेश, निक्खुड सं० निष्कुट आदि । कका अविकार---अकल्ल, सकण्ण, पडाका, जूधिका, नत्तिका, पाकटित आदि । क्षका विकार--बुख सं. वृक्ष, लुक्काणि सं. रूक्षाणि, छोत सं. क्षुत, छुधा सं. क्षुधा, आदि । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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