Book Title: Angvijja Prakirnaka
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 10
________________ અંગવિજા પ્રકીર્ણક [७१ उसकी व्याख्या में निर्दिष्ट पराशरी संहिता जैसे ग्रन्थोंका गहराईसे अवलोकन करना होगा। इतना करनेपर भी ग्रन्थकी परिभाषाका ज्ञान यह महत्त्वकी बात है। अगर इसकी परिभाषाका पता न लगा तो सब अवलोकन व्यर्थप्राय है और तात्त्विक अनुवाद करना अशक्य-सी बात है। दूसरी बात यह भी है कि यह ग्रन्थ यथासाधन यद्यपि काफी प्रमाणमें शुद्ध हो चुका है, फिर भी फलादेश करनेकी अपेक्षा इसका संशोधन अपूर्ण ही है। चिरकालसे इसका अध्ययन-अध्यापन न होनेके कारण इस ग्रन्थमें अब भी काफी त्रुटियाँ वर्तमान हैं; जैसे कि ग्रन्थ कई जगह खंडित है, अङ्ग आदिकी संख्या सब जगह बराबर नहीं मिलती और सम-विषम भी हैं, इसमें निर्दिष्ट पदार्थोंकी पहचान भी बराबर नहीं होती है, अङ्गशास्त्रके साथ सम्बन्ध रखनेवाले पदार्थोंका फलादेशमें क्या और कैसा उपयोग है ? इसकी परिभाषाका कोई पता नहीं है । इस तरह इस ग्रन्थका वास्तविक अनुवाद करना हो तो इस ग्रन्थका साधन्त अध्ययन, आनुषङ्गिक ग्रन्थोंका अवलोकन और एतद्विषयक परिभाषाका ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। ['अंगविजा'का सम्पादन, ई. स. १९५७] [कुछ संक्षेप करके ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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