Book Title: Angvijja Prakirnaka
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210002/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगविज्जा प्रकीर्णक ग्रन्थका बाह्य स्वरूप यह ग्रन्थ गद्य-पद्यमय साठ अध्यायों में समाप्त होता है और नव हजार श्लोक परिमित है। साठवा अध्याय दो विभागमें विभक्त है, दोनों स्थानपर साठवें अध्यायको समाप्तिसूचक पुष्पिका है। मेरी समझसे पुष्पिका अन्तमें ही होनी चाहिए, फिर भी दोनों जगह होनेसे मैंने पुव्वद्धं उत्तरद्धं रूपसे विभाग किया है। पूर्वार्धमें पूर्वजन्म विषयक प्रश्न-फलादेश हैं और उत्तरार्धमें आगामि जन्म विषयक प्रश्न-फलादेश हैं। आठवें और उनसठवें अध्यायके क्रमसे तौस और सत्ताईस पटल (अवान्तर विभाग) हैं। नववाँ अध्याय, यद्यपि कहीं कहीं पटलरूपमें पुष्पिका मिलनेसे (देखो पृ. १०३ ) पटलोंमें विभक्त होगा परन्तु व्यवस्थित पुष्पिकायें न मिलनेसे यह अध्याय कितने पटलोंमें समाप्त होता है यह कहना शक्य नहीं । अतः मैंने इस अध्यायको पटलोसे विभक्त नहीं किया है किन्तु इसके प्रारंभिक पटलमें जो २७० द्वार दिये हैं उन्होके आधारसे विभाग किया है । मूल हस्तलिखित आदर्शोंमें ऐसे विभागोंका कोई ठिकाना नहीं है, न प्रतियों में पुष्पिकाओंका उल्लेख कोई ढंगसर है, न दोसौसत्तर द्वारों का निर्देश भी व्यवस्थित रूपसे मिलता है, तथापि मैंने कहीं भ्रष्ट पुष्पिका, कहीं भ्रष्ट द्वारांक, कहीं पूर्ण घटका चिह्न जो आज विकृत होकर अपनी लिपिका "हठ" सा हो गया है, इत्यादिके आधारपर इस अध्यायके विभागों को व्यवस्थित करनेका यथाशक्य प्रयत्न किया है । इस ग्रंथमें पद्योंके अंक, विभागोंके अंक, द्वारोंके अंक वगैरह मैंने ही व्यवस्थित रूपसे किये हैं। लिखित आदर्शोंमें कहीं कहीं पुराने जमानेमें ऐसे अंक करनेका प्रयत्न किया गया देखा * stafariant (Science of Divination through Physical Signs and Symbols; प्रकाशक-प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, ई. स. १९५७)के संपादनकी प्रस्तावनासे उद्धृत । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અગવિજજા પ્રકીર્ણક [७ जाता है, किन्तु कोई भी इसमें सफल नहीं हुआ है। सबके सब अधबिचमें ही नहीं किन्तु शुरूसे ही पानीमें बैठ गये हैं, फिर भी मैंने इस ग्रन्थमें सायंत विभागादि करनेका सफल प्रयत्न किया है। ग्रंथकी भाषा और जैन प्राकृतके विविध प्रयोग जैन आगमोंकी मौलिक भाषा कैसी होगी - यह जाननेका साधन आज हमारे सामने कोई भी नहीं है। इसी प्रकार मथुरा-वल्लभी आदिमें आगमोंको पुस्तकारूढ किये तब उसकी भाषाका स्वरूप कैसा रहा होगा इसको जानने का भी कोई साधन आज हमारे सामने नहीं है । इस दशामें सिर्फ आज उन ग्रन्थों की जो प्राचीन अर्वाचीन हस्तप्रतियाँ विद्यमान हैं - यह एक ही साधन भाषानिर्णयके लिये बाकी रह जाता है। इतना अनुमान तो सहज ही होता है कि जैन आगमोंकी जो मूल भाषा थी वह पुस्तकारूढ करनेके युगमें न रही होगी, और जो भाषा पुस्तकारूढ करनेके जमानेमें थी वह आज नहीं रही है --- न रह सकती है। प्राचीन-अर्वाचीन चूर्णिव्याख्याकारादिने अपने चूर्णि-व्याख्याग्रन्थोंमें जो सारेके सारे ग्रन्थको प्रतीकोंका संग्रह किया है, इससे पता चलता है कि सिर्फ आगमोंकी मौलिक भाषामें ही नहीं, किन्तु पुस्तकारूढ करनेके युगकी भाषामें भी आज काफी परिवर्तन हो गया है । प्राकृत वृत्तिकार अर्थात् चूर्णिकारोंने अपनी व्याख्यामोंमें जो आगमग्रन्थोंकी प्रतीकोंका उल्लेख किया है उससे काफी परिवर्तनवाली आगमग्रन्थोकी प्रतीकोका निर्देश संस्कृत व्याख्याकारोंने किया है। इससे प्रतीत होता है कि आगमग्रन्थोंकी भाषामें काफी परिवर्तन हो चूका है। ऐसी परिस्थितिमें आगमोंकी प्राचीन हस्तप्रतियाँ और उनके ऊपरकी प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णिया भाषानिर्णयके विधानमें मुख्य साधन हो सकती हैं । यद्यपि आज बहुतसे जैन आगमोंकी प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ दुष्प्राप्य हैं तो भी कुछ अंगआगम और सूर्यप्रज्ञप्ति आदि उपांग वगैरह आगम ऐसे हैं जिनकी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दीमें लिखित प्राचीन हस्तप्रतियाँ प्राप्य हैं । कितनेक आगम ऐसे भी हैं जिनकी चौदहवीं और पन्दरवों शताब्दीमें लिखित प्रतियाँ ही प्राप्त हैं। इन प्रतियोंके अतिरिक्त आगम ग्रन्थोके ऊपरकी प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णियाँ आगमोंकी भाषाका कुछ विश्वसनीय स्वरूप निश्चित करनेमें महत्त्वका साधन बन सकती हैं, जिन चूर्णियोंमें चूर्णिकारोंने जैसा ऊपर मैं कह आया हूं वैसे प्रायः समग्र ग्रन्थकी प्रतीकोंका संग्रह किया है । यह साधन अति महत्त्वका एवं अतिविश्वसनीय है। यद्यपि चूर्णिग्रन्थोंकी अति प्राचीन प्रतियां लभ्य नहीं हैं तथापि बारहवों तेरहवीं चौदहवी शताब्दीमें लिखित प्रतियाँ काफी प्रमाणमें प्राप्य हैं । यहाँ एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि भले ही चूर्णिग्रन्थोंकी अति प्राचीन प्रतियां प्राप्य न भी होती हो, तो भी इन चूर्णिग्रथोंका अध्ययन-वाचन बहुत कम होनेसे इसमें परिवर्तन विकृति आदि होनेका संभव अति अल्प रहा है। अतः ऐसे चूर्णिग्रन्थोको सामने रखनेसे आगमोकी भाषाका निर्णय करने, . प्रामाणिक साहाय्य मिल सकता है। यह बात तो जिन आगमोंके ऊपर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] જ્ઞાનાંજલિ चूर्णि-व्याख्यायें पाई जाती हैं उनको हुई । जिनके ऊपर ऐसे व्याख्याग्रन्थ नहीं हैं ऐसे आगमोंके लिये तो उनके प्राचीन-अर्वाचीन हस्तलिखित प्रत्यन्तर और उनमें पाये जानेवाले पाठभेदोंकावाचनान्तरोंका अति विवेक पुरःसर पृथक्करण करना – यह ही एक साधन है। ऐसे प्रत्यन्तरों में मिलनेवाले विविध वाचनान्तरोंको पृथक्करण करनेका कार्य बड़ा मुश्किल एवं कष्टजनक है, और उनमें से भी किसको मौलिक स्थान देना यह काम तो अतिसूक्ष्मबुद्धिगम्य और साध्य है । भगवती सूत्रकी विक्रम संवत् १११० की लिखी हुई प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रति आचार्य श्री विजय जम्बूसूरिमहाराजके भंडार में है, तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई दो ताडपत्रीय प्रतियाँ जैसलमेरमें हैं, तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई एक ताडपत्रीय प्रति खंभातके श्री शान्तिनाथ ज्ञानभंडारमें है और एक ताडपत्रीय तेरहवीं शताब्दीमें लिखी हुई बडोदेके श्री हंसविजयजी महाराजके ज्ञानभंडारमें है। ये पाँच प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियाँ चारकुलमें विभक्त हो जाती हैं । इनमें जो प्रायोगिक वैविध्य है वह भाषाशास्त्रीयोके लिये बड़े रसका विषय है। यही बात दूसरे आगमग्रन्थोंके बारेमें भी है । अस्तु, प्रसंगवशात् यहाँ जैन आगमोंकी भाषाके विषयमें कुछ सूचन करके अब अंगविजाकी भाषाके विषयमें विचार किया जाता है । इस ग्रंथकी भाषा सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत है, फिर भी यह एक अबाध्य नियम है कि जैन रचनाओं में जैन प्राकृत-अर्धमागधी भाषाका असर हमेशा काफी रहता है और इस वास्ते जैन ग्रन्थोंमें प्रायोगिक वैविध्य नजर आता है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि जैन निग्रन्थों का पादपरिभ्रमण अनेक प्रान्तोंमें प्रदेशोंमें होनेके कारण उनकी भाषाके ऊपर जहाँ तहाँ की लोकभाषा आदिका असर पड़ता है और वह मिश्र भाषा हो जाती है। यही कारण है कि इसको अर्धमागधी कहा जाता है। यहाँ पर यह ध्यान रखनेकी बात है कि जैसे जैन प्राकृत भाषाके ऊपर महाराष्ट्री प्राकृत भाषाका असर पड़ा है वैसे महाराष्टो भाषाके ऊपर ही नहीं, संस्कृत आदि भाषाओंके ऊपर भी जैन प्राकृत-अर्धमागधी भाषाका असर जरूर पड़ा है। यही कारण है कि ऐसे बहुतसे शब्द इधर तिघर प्राकृत-संस्कृत आदि भाषाओंमें नजर आते हैं। ___अस्तु, इस अंगविजा ग्रन्थको भाषा महाराष्ट्री प्राकृत प्रधान भाषा होती हुई भी वह जैन प्राकृत है । इसो कारणसे इस ग्रंथमें हस्व-दीर्घस्वर, द्विर्भाव-अद्विर्भाव स्वर-व्यंजनों के विकार अविकार, विविध प्रकारके व्यंजनविकार, विचित्र प्रयोग-विभक्तियाँ आदि बहुत कुछ नजर आती हैं । भाषाविदों के परिचयके लिये यहाँ इनका संक्षेपमें उल्लेख कर दिया जाता है। कका विकार-परिक्खेस सं० परिक्लेश, निक्खुड सं० निष्कुट आदि । कका अविकार---अकल्ल, सकण्ण, पडाका, जूधिका, नत्तिका, पाकटित आदि । क्षका विकार--बुख सं. वृक्ष, लुक्काणि सं. रूक्षाणि, छोत सं. क्षुत, छुधा सं. क्षुधा, आदि । . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અંગવિજજા પ્રકીર્ણક [१५ खका विकार-कज्जूरी सं. खर्जूरी, साधिणो सं. शाखिनः आदि । खका अविकार-मेखला, फलिखा आदि । गका विकार-छंदोक, मक सं. मृग, मकतण्हा सं. मृगतृष्णा आदि । घका विकार-गोहातक सं. गोघातक, उल्लंहित सं. उल्लचित, छत्तोह सं. छत्रौष आदि। . घका अविकार-जघन्न, चोरघात आदि । चका अविकार-अचलाय, जाचितक आदि । जका अविकार-जोजयितव्व, पजोजइस्सं आदि । डका विकार--छलंगवी सं. षडङ्गवित् , दमिली सं. द्रविडी आदि । तका विकार--उदुसोभा, अणोद्ग, पदोली, वदंसक, ठिदामास, भारधिक, पडिकुंडित सं. प्रति कुंचित आदि । तका अविकार-~-उतु, चेतित, वेतालिक, पितरो, पितुस्सिया, जूतगिह, जूतमाला, जोतिसिक आदि । थका विकार---आमधित, वीधी, कधा, मणोरध, रधप्पयात, पुधवी, गूध, रायपध, पाधेज, पधवावत, मिधो, तध, जूधिका आदि । थका अविकार---मधापथ, रथगिह आदि । दका विकार--कतंब, कातंब, रापप्पसात, लोकहितय, रातण सं. राजादन, पातव, मुनिंग सं. मृदङ्ग, वेतिया आदि । दका अविकार-ओदनिक, पादकिंकणिका, अस्सादेहिति, पादखडुयक आदि । धका विकार–परिसाहसतो सं. पर्षद्धर्षकः आदि । धका अविकार-ओघि, ओसध, अविधेय, अव्वाबाध, खुधित, पसाधक, छुधा, सं. क्षुधा आदि । पका विकार-वउत्थ आदि । पका अविकार-अपलिखित, अपसारित, अपविद्ध, अपसकंत, पोरेपच्च सं० पुरःपत्य, चेतितपादप आदि। भका अविकार--परभुत सं० परभृत आदि । यका विकार-असव्वओ सं. यशस्वतः आदि । रका विकार--दालित सं. दारित, फलिखा सं. परिखा, लसिया सं. रसिका आदि । वका विकार-अपमक सं. अवमक, अपमतर, अपीवर सं. अविवर, महापकास सं. महावकाश आदि। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] જ્ઞાનાંજલિ हका विकार-रमस्स सं. रहस्य, बाधिरंग सं. बाह्याङ्ग, प्रधित सं. प्रहित, णाधिति प्रा. णाहिति __ सं. ज्ञास्यति आदि । लुप्त व्यंजनोंके स्थानमें महाराष्ट्रीप्राकृतमें मुख्यतया अस्पष्ट य श्रुति होती है, परन्तु जैन प्राकृतमें त, ग, य, आदि वर्णोंका आगम होता है। तका आगम-रातोवरोध सं. राजोपरोध, पूता सं. पूजा, पूतिय सं. पूजित, आमतमत सं. आमयमय, गुरुत्थाणीत सं. गुरुस्थानीय, चेतितागत, सं. चैत्यगत, पातुणंतो सं. प्रगुणयन् , जवातू सं. यवागू, वीतपाल सं. बीजपाल आदि । __गका आगम-~-पागुन सं. प्रावृत, सगुण सं. शकुन आदि । यका आगम--पूयिय सं. पूजित, रयित सं. रचित, पयुम सं. पद्म, रयतगिह सं. रजतगृह, सम्मोयिआ सं. सम्मुद् आदि । ___ जैन प्राकृतमें कभी कभी शब्दोंके प्रारम्भके स्वरोंमें त का आगम होता है। ये प्रयोग प्राचीन भाष्य-चूर्णि और मूल आगम सूत्रोंमें भी देखे जाते हैं । तोपभोगतो सं. उपभोगतः, तूण सं. ऊन, तूहा सं. ऊहा, तेतेण सं. एतेण, तूका सं. यूका आदि । अनुस्वारके आगमवाले शब्द-गिंधी सं. गृद्धि, संली सं. श्याली, मुंदिका, सं. मृद्वीका, अप्पणि सं. आत्मनि आदि । अनुस्वारेका लोप—सस्सयित सं. संशयित आदि । प्राकृत भाषामें हस्व-दीर्घस्वर एवं व्यंजनोंके द्विर्भाव-एकीभावका व्यत्यास बहुत हुआ करता है । इस ग्रंथमें ऐसे बहुतसे प्रयोग मिलते हैं---आमसती सं. आमृशति, अप्पणी सं. आत्मनि, णारिए सं. नार्याः, वुख सं. वृक्ष, णिखुड, णिकूड, कावकर, सयाण सं. सकर्ण आदि । जैसे प्राकृतमें शालिवाहन शब्दका संक्षिप्त शब्द प्रयोग सालाहण होता है वैसे ही जैन प्राकृतमें बहुतसे संक्षिप्त शब्दप्रयोग पाये जाते हैं.-साव और साग सं. श्रावक, उज्मा सं. उपाध्याय, कयार सं. कचवर, जागू सं. यवागू, रातण सं. राजादन आदि । ___ इस ग्रन्थमें सिद्ध संस्कृतसे प्राकृत बने हुए प्रयोग कई मिलते हैं - अब्भुत्तिद्वति सं. अभ्युत्तिष्ठति, स्सा और सा सं. स्यात्, केयिच केचिच्च, कचि क्वचित् , अधीयता, अतप्परं सं. अतः परम् , अस सं. अस्य, याव सं. यावत् , वियाणीया सं. विजानीयात् , पस्से सं. पश्येत् , पते और पदे सं. पतेत्, पणिवते सं. प्रणिपतति, थिया सं. स्त्रियाः, पंथा, पेच्छते सं. प्रेक्षते, णिचसो, इस्सज्ज सं. ऐश्वर्य, हाउ सं. स्नायु आदि । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અંગવિજજા પ્રકીર્ણક [१७ इस ग्रन्थमें नाम और आख्यातके कितनेक ऐसे रूप-प्रयोग मिलते हैं जो सामान्यतया व्याकरणसे सिद्ध नहीं होते, फिर भी ऐसे प्रयोग जैन आगमग्रन्थों में एवं भाष्य-चूर्णि आदि प्राकृत व्याख्याओंमें नजर आते हैं। अत्थाय चतुर्थी एकवचन, अचलाय थीय एनाय पहुसाय उदुणीय स्त्रीलिङ्ग तृतीया एकवचन, जारीय चुडिलीय णारीय णरिए णासाय फलकीय स्त्रीलिङ्ग षष्ठी एकवचन, अचलाय गयसालाय दरकडाय पमदाय विमुक्काय दिसांज स्त्रीलिङ्ग सप्तमी एकवचन, अप्पणिं अप्पणी लोकम्हि युत्तग्घम्हि कम्हियि सप्तमी एकवचन । सकाणिं इमाणिं अभंतराणिं प्रथमा बहुवचन । पवेक्खयि सं. प्रवीक्षते, गच्छाहिं सं. गच्छ, जाणेजो सं. जानीयात् , वाइजो वाएजो सं. वाचयेत् वादयेत् , विभाएजो सं. विभाजयेत्, पवेदेजो सं. प्रवेदयेद् । ऐसे विभक्तिरूप और धातुरूपोंके प्रयोग इस ग्रन्थमें काफी प्रमाणमें मिलते हैं। इस प्रन्थ - पच्छेलित सं. प्रसेण्टित, पज्जोवत्त सं. पर्यपवर्त, पच्चोदार सं. प्रत्यपद्वार, रसोतीगिह सं. रसवतीगृह, दिहि सं. धृति, तालवेंट तालबोट सं. तालवृन्त, गिंधि सं. गृद्धि, सस्सयित सं. संशयित, अवरण सं. अपराह्न, वगैरह प्राकृत प्रयोगों का संग्रह भी खूब है। एकवचन द्विवचन बहुवचनके लिये इस ग्रन्थमें एकभस्स दुभस्स-बिभस्स और बहुभस्स शब्दका उल्लेख मिलता है। णिक्खुड णिक्कूड णिखुड णिकूड सं. निष्कुट, संलो सल्ली सल्लीका सं. श्यालिका, विलया विलका सं. वनिता, सम्मोई सम्मोदी सम्मोयिआ सं. सम्मुद्, वियाणेज-जा-ज्जो वियाणीया-वियाणेय विजाणित्ता सं. विजानीयात्, धीता धीया धीतर धीतरी धौतु सं. दुहित वगैरह एक हो शब्दके विभिन्न प्रयोग भी काफी हैं । आलिंगनेस्स सं. आलिङ्गेदेतस्य वुत्ताणेकविसति सं. उक्तान्येकविंशतिः जैसे संधिप्रयोग भी हैं। कितनेक ऐसे प्रयोग भी हैं जिनके अर्थ की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाय; जैसे कि परिसाहसतो सं. पर्षद्धर्षकः आदि । ___यहां विप्रकीर्ण रूपसे प्राचीन जैन प्राकृतके प्रयोगोंकी विविधता एवं विषमताके विषयमें जो जो उदाहरण दिये गये हैं उनमेंसे कोई दो-पाँच उदाहरणों को बाद करके बाकीके सभी इस ग्रंथके ही दिये गये हैं जिनके स्थानों का पता ग्रन्थके अन्तमें छपे हुए कोशको (परिशिष्ट २) देखनेसे लग जायगा। अंगविज्जाशास्त्रका आंतर स्वरूप अङ्गविज्ञाशास्त्र यह एक फलादेशका महाकाय ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ ग्रह-नक्षत्र-तारा आदिके द्वारा या जन्मकुण्डलीके द्वारा फलादेशका निर्देश नहीं करता है किन्तु मनुष्यकी सहज प्रवृत्तिके Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 જ્ઞાનાંજલિ निरीक्षण द्वारा फलादेशका निरूपण करता है। अतः मनुष्यके हलन-चलन और रहन-सहन आदिके विषयमें विपुल वर्णन इस ग्रन्थमें पाया जाता है। यह ग्रन्थ भारतीय वाङ्मयमें अपने प्रकारका एक अपूर्वसा महाकाय ग्रंथ है । जगतभरके वाङ्मयमें इतना विशाल, इतना विशद महाकाय ग्रन्थ दूसरा एक भी अद्यापि पर्यंत विद्वानोंकी नजरमें नहीं आया है। इस शास्त्रके निर्माताने एक बात स्वयं ही कबूल कर ली है कि इस शास्त्रका वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानीसे फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेशोंमेंसे एक असत्य ही होगा, अर्थात् इस शास्त्र की यह एक त्रुटि है । यह शास्त्र यह भी निश्चित रूपसे निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशोंमेंसे कौनसा असत्य होगा। यह शास्त्र इतना ही कहता है कि " सोलस वाकरणाणि वाकरेहिसि. ततो पुण एक्कं चुकिहिसि, पण्णरह अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसंकासो भविहिसि" पृष्ठ २६५, अर्थात् “ सोलह फलादेश तू करेगा उनमेंसे एकमें चूक जायगा, पनरहको संपूर्ण कह सकेगा - बतलाएगा, इससे तू केवल ज्ञानी न होने पर भी केवली समान होगा।" इस शास्त्रके ज्ञाताको फलादेश करनेके पहेले प्रश्न करनेवालेकी क्या प्रवृत्ति है ? या प्रश्न करनेवाला किस अवस्थामें रहकर प्रश्न करता है ? इसके तरफ उसको खास ध्यान या खयाल रखनेका होता है। प्रश्न करनेवाला प्रश्न करनेके समय अपने कौन-कौनसे अङ्गोंका स्पर्श करता है ! वह बैठके प्रश्न करता है या खड़ा रहकर प्रश्न करता है ? , रोता है या हँसता है, वह गिर जाता है, सो जाता है, विनीत है या अविनोत ?, उसका आना-जाना, आलिंगन-चुंबन करना, रोना, विलाप करना या आक्रन्दन करना, देखना, बात करना वगैरह सब क्रियाओंकी पद्धतिको देखता है ; प्रश्न करनेवालेके साथ कौन है ? क्या फलादि लेकर आया है ?, उसने कौनसे आभूषण पहने हैं वगैरहको भी देखता है और बादमें अङ्गविद्याका ज्ञाता फलादेश करता है। इस शास्त्रके परिपूर्ण एवं अतिगंभीर अध्ययनके बिना फलादेश करना एकाएक किसीके लिये भी शक्य नहीं है । अतः कोई ऐसी सम्भावना न कर बैठे कि इस ग्रन्थके सम्पादकमें ऐसी योग्यता होगी। मैंने तो इस वैज्ञानिक शास्त्रको वैज्ञानिक पद्धतिसे अध्ययन करने बालोको काफी साहाय्य प्राप्त हो सके इस दृष्टि से मेरेको मिले उतने इस शास्त्र के प्राचीन आदर्श और एतद्विषयक इधर-उधरकी विपुल सामग्रीको एकत्र करके, हो सके इतनी केवल शाब्दिक ही नहीं किन्तु आर्थिक संगतिपूर्वक इस शास्त्रको शुद्ध बनानेके लिये सुचारु रूपसे प्रयत्नमात्र किया है। अन्यथा मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि काफी प्रयत्न करनेपर भी इस ग्रन्थकी अति प्राचीन भिन्न-भिन्न कुलकी शुद्ध प्रतियाँ काफी प्रमाणमें न मिलनेके कारण अब भो ग्रन्थमें काफी खंडितता और अशुद्धियां Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t se અગવિજ્જા પ્રકીર્ણ ક रह गई हैं। मैं चाहता हूँ कि कोई विद्वान् इस वैज्ञानिक विषयका अध्ययन करके इसके मर्मका उद्घाटन करे । ऊपर कहा गया उस मुताबिक कोई वैज्ञानिक दृष्टिवाला फलादेशको अपेक्षा इस शास्त्रका अध्ययन करे तो यह ग्रन्थ बहुत कीमती है - इसमें कोई फर्क नहीं है । फिर भी तात्कालिक दूसरी दृष्टिसे अगर देखा जाय तो यह ग्रन्थ कई अपेक्षासे महत्त्वका है । आयुर्वेदज्ञ, वनस्पतिशास्त्री, प्राणीशास्त्री, मानसशास्त्री, समाजशास्त्री, ऐतिहासिक वगैरहको इस ग्रन्थमें काफी सामग्री मिल जायगी । भारतके सांस्कृतिक इतिहास प्रेमीयोंके लिये इस ग्रन्थमें विपुल सामग्री भरी पड़ी है। प्राकृत और जैन प्राकृत व्याकरणज्ञों के लिये भी सामग्री कम नहीं है । भविष्य में प्राकृत कोशके रचयिता को इस ग्रन्थका साधन्त अवलोकन नितान्त आवश्यक होगा । सांस्कृतिक सामग्री इस अंगविधा ग्रन्थका मुख्य सम्बन्ध मनुष्योंके अंग एवं उनकी विविध क्रिया- चेष्टाओंसे होनेके कारण इस ग्रन्थ में अंग एवं क्रियाओं का विशद रूपमें वर्णन है । ग्रन्थकर्त्ताने अंगों के आकारप्रकार, वर्ण, संख्या, तोल, लिङ्ग, स्वभाव आदिको ध्यान में रखकर उनको २७० विभागों में विभक्त किया है [ देखो परिशिष्ट ४ ] | मनुष्योकी विविध चेष्टाएँ, जैसे कि बैठना, पर्यस्तिका, आमर्श, अपश्रय-आलम्बन टेका देना, खड़ा रहना, देखना, हँसना, प्रश्न करना, नमस्कार करना, संलाप, आगमन, रुदन, परिदेवन, क्रन्दन, पतन, अभ्युत्थान, निर्गमन, प्रचलायित, जम्भाई लेना, चुम्बन, आलिंगन, सेवित आदि; इन चेष्टाओंका अनेकानेक भेद-प्रकारोंमें वर्णन भी किया है । साथमें मनुष्य के जीवन में होनेवाली अन्यान्य क्रिया- चेष्टाओंका वर्णन एवं उनके एकार्थकों का भी निर्देश इस ग्रन्थमें दिया है | इससे सामान्यतया प्राकृत वाङ्मयमें जिन क्रियापदों का उल्लेख संग्रह नहीं हुआ है उनका संग्रह इस ग्रंथ में विपुलतासे हुआ है, जो प्राकृत भाषाकी समृद्धिकी दृष्टिसे बड़े महत्त्वका है [ देखो तीसरा परिशिष्ट ] | सांस्कृतिक दृष्टिसे इस ग्रंथ में मनुष्य, तिर्यंच अर्थात् पशु-पक्षी क्षुद्र जन्तु, देव-देवी और वनस्पतिके साथ सम्बन्ध रखनेवाले कितने ही पदार्थ वर्णित हैं [ देखो परिशिष्ट ४ ] । इस ग्रन्थमें मनुष्यके साथ सम्बन्ध रखनेवाले अनेक पदार्थ, जैसे कि – चतुर्वर्ण विभाग, जाति विभाग, गोत्र, योनि-अटक, सगपण सम्बन्ध, कर्म-धंधा - व्यापार, स्थान- अधिकार, आधिपत्य, यान - वाहन, नगर-ग्राम- मडंब - द्रोणमुखादि प्रादेशिक विभाग, घर-प्रासादादिके स्थान विभाग, प्राचीन सिक्के, भाण्डोपकरण, भाजन, भोज्य, रस, सुरा आदि पेय पदार्थ, वस्त्र, आच्छादन, अलंकार, विविध प्रकार के तैल, अपश्रय-टेका देनेके साधन, रत सुरत क्रीडाके प्रकार, दोहद, रोग, उत्सव, वादित्र, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०) જ્ઞાનાંજલિ आयुध, नदो, पर्वत, खनिज, वर्ण-रंग, मंडल, नक्षत्र, काल-बेला, व्याकरण विभाग, इन सबके नामादिका विपुल संग्रह है। तिर्यग्विभागके चतुष्पद, परिसर्प, जलचर, सर्प, मत्स्य, क्षुद्र जन्तु आदिके नामादिका भी विस्तृत संग्रह है । वनस्पति विभागके वृक्ष, पुष्प, फल, गुल्म, लता आदिके नामोका संग्रह भी खूब है। देव और देवियोंके नाम भी काफी संख्यामें हैं। इस प्रकार मनुष्य, तिथंच, वनस्पति आदिके साथ सम्बन्ध रखनेवाले जिन पदार्थों का निर्देश इस ग्रंथमें मिलता है, यह भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताकी दृष्टिसे अतिमहत्त्वका है । आश्चर्यकी बात तो यह है कि ग्रंथकार आचार्यने इस शास्त्रमें एतद्विषयक प्रणालिकानुसार वृक्ष, जाति और उनके अंग, सिक्के, भांडोपकरण, भाजन, भोजन, पेय द्रव्य, आभरण, वस्त्र, आच्छादन, शयन, आसन, आयुध, क्षुद्र जन्तु आदि जैसे जड एवं क्षुद्र चेतन पदार्थोंको भी इस ग्रन्थमें पुं-स्त्रो-नपुंसक विभागमें विभक्त किया है । इस ग्रंथमें सिर्फ इन चीजोंके नाम मात्र ही मिलते हैं, ऐसा नहीं किन्तु कई चीजोके वर्णन और उनके एकार्थक भी मिलते हैं। जिन चीजोंके नामोंका पता संस्कृत-प्राकृत कोश आदिसे न चले, ऐसे नामोका पता इस ग्रन्थके सन्दर्भीको देखनेसे चल जाता है । . इस ग्रंथमें शरीरके अङ्ग, एवं मनुष्य-तिर्यच-वनस्पति-देव-देवी वगैरहके साथ संबंध रखनेवाले जिन-जिन पदार्थोके नामोका संग्रह है वह तद्विषयक विद्वानोंके लिये अति महत्त्वपूर्ण संग्रह बन जाता है। इस संग्रहको भिन्न भिन्न दृष्टिसे गहराईपूर्वक देखा जायगा तो बड़े महत्वके कई नामोंका तथा विषयोंका पता चल जायगा । जैसे कि क्षत्रप राजाओंके सिक्कों का उल्लेख इस ग्रन्थमें खत्तपको नामसे पाया जाता है [ देखो अ० ९ श्लोक १८६ ] । प्राचीन खुदाईमेंसे कितने ही जैन यागपट मिले हैं, फिर भी आयाग शब्दका उल्लेख-प्रयोग जैन ग्रन्थों में कहीं देखनेमें नहीं आता है, किन्तु इस ग्रन्थमें इस शब्दका उल्लेख पाया जाता है। [देखो पृष्ठ १५२, १६८] | सहितमहका नाम, जो श्रावस्ती नगरीका प्राचीन नाम था उसका भी उल्लेख इस ग्रन्थमें अ० २६, १५३ में नजर आता है। इनके अतिरिक्त आजीवक, डुपहारक आदि अनेक शब्द एवं नामादिका संग्रह-उपयोग इस ग्रन्थमें हुआ है जो संशोधकोंके लिये महत्त्वका है। अंगविज्जा ग्रन्थका अध्ययन और अनुवाद कुछ विद्वानोंका कहना है कि इस ग्रन्थका अनुवाद किया जाय तो अच्छा हो । इस विषयमें मेरा मन्तव्य इस प्रकार है फलादेशविषयक यह ग्रन्थ एक पारिभाषिक ग्रन्थ है। जबतक इसकी परिभाषाका पता न लगाया जाय तबतक इस ग्रन्थके शाब्दिक मात्र अनुवादका कोई महत्व नहीं है। इसलिये इस ग्रन्थके अनुवादकको प्रथम तो इसकी परिभाषाका पता लगाना होगा और एतद्विषयक अन्यान्य ग्रन्थ देखने होंगे; जैसे कि इस ग्रन्थके अंतमें प्रथम परिशिष्ट रूपसे छपे हुए ग्रन्थ जैसे ग्रन्थ और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અંગવિજા પ્રકીર્ણક [७१ उसकी व्याख्या में निर्दिष्ट पराशरी संहिता जैसे ग्रन्थोंका गहराईसे अवलोकन करना होगा। इतना करनेपर भी ग्रन्थकी परिभाषाका ज्ञान यह महत्त्वकी बात है। अगर इसकी परिभाषाका पता न लगा तो सब अवलोकन व्यर्थप्राय है और तात्त्विक अनुवाद करना अशक्य-सी बात है। दूसरी बात यह भी है कि यह ग्रन्थ यथासाधन यद्यपि काफी प्रमाणमें शुद्ध हो चुका है, फिर भी फलादेश करनेकी अपेक्षा इसका संशोधन अपूर्ण ही है। चिरकालसे इसका अध्ययन-अध्यापन न होनेके कारण इस ग्रन्थमें अब भी काफी त्रुटियाँ वर्तमान हैं; जैसे कि ग्रन्थ कई जगह खंडित है, अङ्ग आदिकी संख्या सब जगह बराबर नहीं मिलती और सम-विषम भी हैं, इसमें निर्दिष्ट पदार्थोंकी पहचान भी बराबर नहीं होती है, अङ्गशास्त्रके साथ सम्बन्ध रखनेवाले पदार्थोंका फलादेशमें क्या और कैसा उपयोग है ? इसकी परिभाषाका कोई पता नहीं है । इस तरह इस ग्रन्थका वास्तविक अनुवाद करना हो तो इस ग्रन्थका साधन्त अध्ययन, आनुषङ्गिक ग्रन्थोंका अवलोकन और एतद्विषयक परिभाषाका ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। ['अंगविजा'का सम्पादन, ई. स. १९५७] [कुछ संक्षेप करके ]