________________
११]
જ્ઞાનાંજલિ हका विकार-रमस्स सं. रहस्य, बाधिरंग सं. बाह्याङ्ग, प्रधित सं. प्रहित, णाधिति प्रा. णाहिति
__ सं. ज्ञास्यति आदि ।
लुप्त व्यंजनोंके स्थानमें महाराष्ट्रीप्राकृतमें मुख्यतया अस्पष्ट य श्रुति होती है, परन्तु जैन प्राकृतमें त, ग, य, आदि वर्णोंका आगम होता है।
तका आगम-रातोवरोध सं. राजोपरोध, पूता सं. पूजा, पूतिय सं. पूजित, आमतमत सं. आमयमय, गुरुत्थाणीत सं. गुरुस्थानीय, चेतितागत, सं. चैत्यगत, पातुणंतो सं. प्रगुणयन् , जवातू सं. यवागू, वीतपाल सं. बीजपाल आदि । __गका आगम-~-पागुन सं. प्रावृत, सगुण सं. शकुन आदि ।
यका आगम--पूयिय सं. पूजित, रयित सं. रचित, पयुम सं. पद्म, रयतगिह सं. रजतगृह, सम्मोयिआ सं. सम्मुद् आदि ।
___ जैन प्राकृतमें कभी कभी शब्दोंके प्रारम्भके स्वरोंमें त का आगम होता है। ये प्रयोग प्राचीन भाष्य-चूर्णि और मूल आगम सूत्रोंमें भी देखे जाते हैं । तोपभोगतो सं. उपभोगतः, तूण सं. ऊन, तूहा सं. ऊहा, तेतेण सं. एतेण, तूका सं. यूका आदि ।
अनुस्वारके आगमवाले शब्द-गिंधी सं. गृद्धि, संली सं. श्याली, मुंदिका, सं. मृद्वीका, अप्पणि सं. आत्मनि आदि ।
अनुस्वारेका लोप—सस्सयित सं. संशयित आदि ।
प्राकृत भाषामें हस्व-दीर्घस्वर एवं व्यंजनोंके द्विर्भाव-एकीभावका व्यत्यास बहुत हुआ करता है । इस ग्रंथमें ऐसे बहुतसे प्रयोग मिलते हैं---आमसती सं. आमृशति, अप्पणी सं. आत्मनि, णारिए सं. नार्याः, वुख सं. वृक्ष, णिखुड, णिकूड, कावकर, सयाण सं. सकर्ण आदि ।
जैसे प्राकृतमें शालिवाहन शब्दका संक्षिप्त शब्द प्रयोग सालाहण होता है वैसे ही जैन प्राकृतमें बहुतसे संक्षिप्त शब्दप्रयोग पाये जाते हैं.-साव और साग सं. श्रावक, उज्मा सं. उपाध्याय, कयार सं. कचवर, जागू सं. यवागू, रातण सं. राजादन आदि ।
___ इस ग्रन्थमें सिद्ध संस्कृतसे प्राकृत बने हुए प्रयोग कई मिलते हैं - अब्भुत्तिद्वति सं. अभ्युत्तिष्ठति, स्सा और सा सं. स्यात्, केयिच केचिच्च, कचि क्वचित् , अधीयता, अतप्परं सं. अतः परम् , अस सं. अस्य, याव सं. यावत् , वियाणीया सं. विजानीयात् , पस्से सं. पश्येत् , पते और पदे सं. पतेत्, पणिवते सं. प्रणिपतति, थिया सं. स्त्रियाः, पंथा, पेच्छते सं. प्रेक्षते, णिचसो, इस्सज्ज सं. ऐश्वर्य, हाउ सं. स्नायु आदि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org