Book Title: Angvijja Prakirnaka
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ અંગવિજજા પ્રકીર્ણક [१७ इस ग्रन्थमें नाम और आख्यातके कितनेक ऐसे रूप-प्रयोग मिलते हैं जो सामान्यतया व्याकरणसे सिद्ध नहीं होते, फिर भी ऐसे प्रयोग जैन आगमग्रन्थों में एवं भाष्य-चूर्णि आदि प्राकृत व्याख्याओंमें नजर आते हैं। अत्थाय चतुर्थी एकवचन, अचलाय थीय एनाय पहुसाय उदुणीय स्त्रीलिङ्ग तृतीया एकवचन, जारीय चुडिलीय णारीय णरिए णासाय फलकीय स्त्रीलिङ्ग षष्ठी एकवचन, अचलाय गयसालाय दरकडाय पमदाय विमुक्काय दिसांज स्त्रीलिङ्ग सप्तमी एकवचन, अप्पणिं अप्पणी लोकम्हि युत्तग्घम्हि कम्हियि सप्तमी एकवचन । सकाणिं इमाणिं अभंतराणिं प्रथमा बहुवचन । पवेक्खयि सं. प्रवीक्षते, गच्छाहिं सं. गच्छ, जाणेजो सं. जानीयात् , वाइजो वाएजो सं. वाचयेत् वादयेत् , विभाएजो सं. विभाजयेत्, पवेदेजो सं. प्रवेदयेद् । ऐसे विभक्तिरूप और धातुरूपोंके प्रयोग इस ग्रन्थमें काफी प्रमाणमें मिलते हैं। इस प्रन्थ - पच्छेलित सं. प्रसेण्टित, पज्जोवत्त सं. पर्यपवर्त, पच्चोदार सं. प्रत्यपद्वार, रसोतीगिह सं. रसवतीगृह, दिहि सं. धृति, तालवेंट तालबोट सं. तालवृन्त, गिंधि सं. गृद्धि, सस्सयित सं. संशयित, अवरण सं. अपराह्न, वगैरह प्राकृत प्रयोगों का संग्रह भी खूब है। एकवचन द्विवचन बहुवचनके लिये इस ग्रन्थमें एकभस्स दुभस्स-बिभस्स और बहुभस्स शब्दका उल्लेख मिलता है। णिक्खुड णिक्कूड णिखुड णिकूड सं. निष्कुट, संलो सल्ली सल्लीका सं. श्यालिका, विलया विलका सं. वनिता, सम्मोई सम्मोदी सम्मोयिआ सं. सम्मुद्, वियाणेज-जा-ज्जो वियाणीया-वियाणेय विजाणित्ता सं. विजानीयात्, धीता धीया धीतर धीतरी धौतु सं. दुहित वगैरह एक हो शब्दके विभिन्न प्रयोग भी काफी हैं । आलिंगनेस्स सं. आलिङ्गेदेतस्य वुत्ताणेकविसति सं. उक्तान्येकविंशतिः जैसे संधिप्रयोग भी हैं। कितनेक ऐसे प्रयोग भी हैं जिनके अर्थ की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाय; जैसे कि परिसाहसतो सं. पर्षद्धर्षकः आदि । ___यहां विप्रकीर्ण रूपसे प्राचीन जैन प्राकृतके प्रयोगोंकी विविधता एवं विषमताके विषयमें जो जो उदाहरण दिये गये हैं उनमेंसे कोई दो-पाँच उदाहरणों को बाद करके बाकीके सभी इस ग्रंथके ही दिये गये हैं जिनके स्थानों का पता ग्रन्थके अन्तमें छपे हुए कोशको (परिशिष्ट २) देखनेसे लग जायगा। अंगविज्जाशास्त्रका आंतर स्वरूप अङ्गविज्ञाशास्त्र यह एक फलादेशका महाकाय ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ ग्रह-नक्षत्र-तारा आदिके द्वारा या जन्मकुण्डलीके द्वारा फलादेशका निर्देश नहीं करता है किन्तु मनुष्यकी सहज प्रवृत्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11