Book Title: Angulsattari
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 16
________________ भंगुल० अर्थ एवं इण प्रकारे तस्मिन् ते भरतक्षेत्रना लेसुद्देसेण कहेतां लवलेस मांहीं चक्रीनो परिवार माय अन्यथा मूत्रनो अर्थ प्ररूपवा केम शक्तिमान थइए // 66 // | जइ पुण सहस्सगुणिए चउसयगुणिए वकस्सई तोसो।तो सोतहाविकुजापरं विरोह परिहरिजा // 67 // अर्थ-यदि कहेतां जो पुनःवली सहस्र (1000) गुणित अने चारसो गुणित कहीने संतोष उपजे तो तथा विध ते संतोष करो परंतु सहस्र गुणित चारसो गुणीत एहनुं मानवू पणं एटलं कर विरोध परिहरवो.॥६७॥ . अम्हाणमभिनिवेसो न कोइ इत्थ परमन्नहा सुत्ती अघटतं पिव पुव्वावरेण पडिहाइ किं करिमो अर्थ-अत्र अंगुल विचारने विषे ग्रंथकारक कहे छे अम्हने कांइ अभिनिवेस कहेतां कदाग्रह नथी परं अन्यथा पूर्वापर पहेलु | अने पछी सूत्र विघटे हुँ सुं करूं? // 68 // - एअम्मि अपन्नविए उस्सुत्तं हुज्ज किं पि जइइत्थ।तो॥मे मिच्छादुक्कडमिह तत्तविऊ जिणो जेण // 69 // 4 अर्थ-ए अंगुल सत्तरी प्ररूपतां कांइपण उत्सूत्र, यदि कहेतां जो. अत्र कहेता इहां, अंगुल विचारने विषे मुजने 'मिच्छा| मिदुकडं ' जे कारणे तखतो जाण, जिन केवली ते जाणे // 69 // है सिरिमंमुणिचंदमुणीसरेहिं सुत्ताणमणुसरंतेहिं / सुत्तगयजुत्तिसारं रइअमिणं सपरगुणहेउं // 70 // अर्थ-मूत्रनी आज्ञाने अनुसरता एवा श्रीमान् मुनिचंद्रमुनीश्वरे मूत्रगत जे युक्ति ते सारं० प्रधान एहवी अंगुलसप्ततिकानी रचना करी / किमर्थं रचितं स्व अने परने अर्थ. // 7 // // इति अंगुलसप्ततिका समाप्ता // CALCULA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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