Book Title: Angsuttani Part 01 - Ayaro Suyagao Thanam Samavao
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1081
________________ एवं वाणमंतराणं एवं विततेवि एवं विसोही एवं वेदेति एवं णिज्जरेंति एवं वेयावच्चे अणुग्गहे अणुसट्ठी उवालंभे एवमेके तिणि- तिणि आलावगा जहेव उवक्कमे जोइसियाणं एवं कप्पे पणे दिट्ठी सीमाचारे हारे रक्कमे एगे पुरिसजाए पfsaral afte एवं सकाइ सम्माति पूएइ वाएइ पच्छिति पुच्छ वागरेति एवं सम्मद्दिट्ठ परित्ता पज्जत्तग सुहुमसण भविया य एवं सव्वेसि चउभंगो भाणियव्वो एवं सामंतोवणिवाइयावि एवं सुंदरी वि एवं सुत्णय चरित्तेण य एवं मज्भोवज्जणा परियावज्जणा एवमणारंभे वि एवं सारंभे वि एवमसारंभ वि एवं समारंभे वि एवं असमारंभे वि जाव अजीवकाय असमारंभ एवमणुणवत्त उवातिणित्तते एवमभेज्जा अडज्मा अगिज्झा अड्डा अमज्झा अपएसा एवमाधारातिणिताते एवमासणाई चलेज्जा सीहणातं करेज्जा चेलुक्खेवं करेज्जा एवमिट्ठा जाव मणामा एवमिमी ओसप्पिणीए जाव पण्णत्ते एवं आगमिस्साए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सति एवमेगसमयठितिया Jain Education International २६ ७ १०७,१०८ २।२१७ ३।४३३ २३६, ३६७ ६।४१२-४१५ ४।६-११ ४।११३-११६ ३।३१८ ४२०३ २।२५ ५।१६३ ४/४०६ ३ ५०६, ५१० ७१८५-८६ ३।४२०, ४२१ ३१३२६-३३४ ५/४६ ३१८२-८४ २।२३४,२३५ २।३१०,३११ १।२५५ For Private & Personal Use Only ७ १०६ २।२१६ ३।४३२ २३६५ ३/४११ ४/५ ४।१११ ३।३१८ ४१६५ २।२४ ५।१५६ ४|४०८ ३।५०८ ७/८४ ३/४१६ ३।३२८ ५/४८ ३८१ २।२३३ २३०६ १।२५४ www.jainelibrary.org

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