Book Title: Anekantvada ki Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ अनेकान्तवाद की मर्यादा १५१ इस समझ का कारण है कि जैन विद्वानों ने स्याद्वाद के निरूपण और समर्थन में बहुत बड़े बड़े ग्रन्थ लिख डाले हैं, अनेक युक्तियों का आविर्भाव किया है और अनेकान्तवाद के शस्त्र के बल से ही उन्होंने दूसरे दार्शनिक विद्वानों के साथ कुश्ती की है। इस चर्चा से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं--एक तो यह कि भगवान् महावीर ने अपने उपदेशों में अनेकान्तवाद का जैसा स्पष्ट श्राश्रय लिया है वैसा उनके समकालीन और पूर्ववर्ती दर्शन प्रवर्तकों में से किसी ने भी नहीं लिया है। दूसरी रात यह कि भगवान् महावीर के अनुयायी जैन आचार्यों ने अनेकान्त दृष्टि के निरूपण और समर्थन करने में जितनी शक्ति लगाई है उतनी और किसी भी दर्शन के अनुगामी आचार्यों ने नहीं लगाई । अनेकान्त दृष्टि के मूल तत्त्व जब सारे जैन विचार और प्राचार की नींव अनेकान्त दृष्टि ही है तब पहले यह देखना चाहिए कि अनेकान्त दृष्टि किन तत्त्वों के आधार पर खड़ी की गई है ? विचार करने और अनेकान्त दृष्टि के साहित्य का अवलोकन करने से मालूम होता है कि अनेकान्त दृष्टि सत्य पर खड़ी है । यद्यपि सभी महान् पुरुष सत्य को पसन्द करते हैं और सत्य की ही खोज तथा सत्य के ही निरूपण में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तथापि सत्य निरूपण की पद्धति और सत्य की खोज सब की एक सी नहीं होती। बुद्धदेव जिस शैली से सत्य का निरूपण करते हैं या शङ्कराचार्य उपनिषदों के आधार पर जिस ढंग से सत्य का प्रकाशन करते हैं उससे भ. महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली जुदा है। भ० महावीर की सत्य प्रकाशन शैली का ही दूसरा नाम 'अनेकान्तवाद' है । उसके मूल में दो तत्त्व है-पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है वही सत्य कहलाता है। अनेकान्त की खोज का उद्देश्य और उसके प्रकाशन की शर्ते-- वस्तु का पूर्ण रूप में त्रिकालाबाधित यथार्थ दर्शन होना कठिन है, किसी को वह हो भी जाय तथापि उसका उसी रूप में शब्दों के द्वारा ठीक-ठीक कथन करना उस सत्यद्रष्टा और सत्यवादी के लिए भी बड़ा कठिन है । कोई उस कठिन काम को किसी अंश में करनेवाले निकल भी आएँ तो भी देश, काल, परिस्थिति, भाषा और शैली आदि के अनिवार्य भेद के कारण उन सब के कथन में कुछ न कुछ विरोध या भेद का दिखाई देना अनिवार्य है । यह तो हुई उन पूर्णदर्शी और सत्यवादी इने-गिने मनुष्यों की बात, जिन्हें हम सिर्फ कल्पना या अनुमान से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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