Book Title: Anekantvada ki Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ अनेकान्तवाद की मर्यादा १५७ दृष्टि और आधारभूत अहिंसा-ये दोनों तत्त्व महान् से महान् हैं, उनका प्रभाव तथा प्रतिष्ठा जमाने में जैन सम्प्रदाय का बड़ा भारी हिस्सा भी है पर इस बीसवीं सदी के विषम राष्ट्रीय तथा सामाजिक जीवन में उन तत्त्वों से यदि कोई खास फायदान पहुँचे तो मंदिर, मठ और उपाश्रयों में हजारों पण्डितो के द्वारा चिल्लाहट मचाए जाने पर भी उन्हें कोई पूछेगा नहीं, यह निःसंशय बात है । जैनलिंगधारी सैकड़ों धर्मगुरु और सैकड़ों पंडित अनेकान्त के बाल की खाल दिन-रात निकालते रहते हैं और अहिंसा की सूक्ष्म चर्चा में खून सुखाते तथा सिर तक फोड़ा करते हैं, तथापि लोग अपनी स्थिति के समाधान के लिए उनके पास नहीं फटकते । कोई जवान उनके पास पहुँच भी जाता है तो वह तुरन्त उनसे पूछ बैठता है कि "अापके पास जब समाधानकारी अनेकान्त-दृष्टि और अहिंसा तत्त्व मौजूद हैं तब आप लोग आपस में ही गैरों की तरह बातबात में क्यों टकराते हैं ? मंदिर के लिए, तीर्थ के लिए, धार्मिक प्रथाओं के लिए, सामाजिक रीति रिवाजों के लिए यहाँ तक कि वेश रखना तो कैसा रखना, हाथ में क्या पकड़ना, कैसे पकड़ना इत्यादि बालसुलभ बातों के लिए-आप लोग. क्यों आपस में लड़ते हैं ? क्या आपका अनेकान्तवाद ऐसे विषयों में कोई मार्ग निकाल नहीं सकता १ क्या आपके अनेकान्तवाद में और अहिंसा तत्त्व में प्रिवीकाउन्सिल, हाईकोर्ट अथवा मामूली अदालत जितनी भी समाधानकारक शक्ति नहीं है ? क्या हमारी राजकीय तथा सामाजिक उलझनों को सुलझाने का सामर्थ्य आपके इन दोनों तत्त्वों में नहीं है ? यदि इन सब प्रश्नों का अच्छा समाधानकारक उत्तर अाप असली तौर से 'हाँ' में नहीं दे सकते तो आपके. पास आकर हम क्या करेंगे ? हमारे जीवन में तो पद-पद पर अनेक कठिनाइयाँ आती रहती हैं। उन्हें हल किये बिना यदि हम हाथ में पोथियाँ लेकर कथंचित् एकानेक. कथंचित् भेदाभेद और कथंचित् नित्यानित्य के खाली नारे लगाया करें तो इससे हमें क्या लाभ पहुँचेगा ? अथवा हमारे व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक जीवन में क्या फर्क पड़ेगा ?" और यह सब पूछना है भी ठीक, जिसका उत्तर देना उनके लिए असंभव हो जाता है । इसमें संदेह नहीं कि अहिंसा और अनेकान्त की चर्चावाली पोथियों की, उन पोथीवाले भण्डारों की, उनके रचनेवालों के नामों को तथा उनके रचने के स्थानों की इतनी अधिक पूजा होती है कि उसमें सिर्फ फूलों का ही नहीं किन्तु सोने-चाँदी तथा जवाहरात तक का ढेर लग जाता है तो भी उस पूजा के करने तथा करानेवालों का जीवन दूसरों जैसा प्रायः पामर ही नजर आता है और दूसरी तरफ हम देखते हैं तो यह स्पष्ट नजर आता है कि गांधीजी के अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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