Book Title: Anekantvada ki Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 8
________________ १५६ जैन धर्म और दर्शन. शास्त्रार्थ की कुश्ती हुई उससे अन्त में अनेकान्त-दृष्टि का ही असर अधिक फैला । यहाँ तक कि रामानुज जैसे बिलकुल जैनत्व विरोधी पखर श्राचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद के विरुद्ध अपना मत स्थापित करते समय आश्रय तो सामान्य उपनिषदों का लिया पर उनमें से विशिष्टाद्वैत का निरूपण करते समय अनेकान्तदृष्टि का उपयोग किया, अथवा यों कहिए कि रामानुज ने अपने ढंग से अनेकान्तदृष्टि को विशिष्टाद्वैत की घटना में परिणत किया और औपनिषद तत्व का जामा पहना कर अनेकांत-दृष्टि में से विशिष्टाद्वैतवाद खड़ा करके अनेकान्त-दष्टि की ओर आकर्षित जनता को वेदान्त मार्ग पर स्थिर रखा । पुष्टि-मार्ग के पुरस्कर्ता वल्लभ जो दक्षिण हिन्दुस्तान में हुए, उनके शुद्धाद्व त-विषयक सब तत्त्व, हैं तो औपनिषदिक पर उनकी सारी विचारसरणी अनेकान्त-दृष्टि का नया वेदान्तीय स्वाँग है । इधर उत्तर और पश्चिम हिन्दुस्तान में जो दूसरे विद्वानों के साथ श्वेताम्बरीय महान् विद्वानों का खण्डनमण्डन-विषयक द्वन्द्व हुश्रा उसके फलस्वरूप अनेकान्तवाद का असर जनता में फैला और सांप्रदायिक ढंग से अनेकांतवाद का विरोध करनेवाले भी जानते अनजानते. अनेकांत-दृष्टि को अपनाने लगे। इस तरह वाद रूप में अनेकांत-दृष्टि अाज तक जैनों की ही बनी हुई है तथापि उसका असर किसी न किसी रूप में अहिंसा की तरह विकृत या अर्धविकृत रूप में हिन्दुस्तान के हरएक भाग में फैला हुआ है। इसका सबूत सब भागों के साहित्य में से मिल सकता है। व्यवहार में अनेकान्त का उपयोग न होने का नतीजा जिस समय राजकीय उलट फेर का अनिष्ट परिणाम स्थायी रूप से ध्यान में आया न था, सामाजिक बुराइयाँ आज की तरह असह्य रूप में खटकती न थीं, उद्योग और खेती की स्थिति आज के जैसी अस्तव्यस्त हुई न थी, समझपूर्वक या बिना समझे लोग एक तरह से अपनी स्थिति में संतुष्टप्राय थे और असंतोष का दावानल आज की तरह व्याप्त न था, उस समय प्राध्यात्मिक साधना में से आविर्भूत अनेकान्त दृष्टि केवल दार्शनिक प्रदेश में रही और सिर्फ चर्चा तथा वादविवाद का विषय बनकर जीवन से अलग रहकर भी उसने अपना अस्तित्व कायम रखा, कुछ प्रतिष्ठा भी पाई, यह सब उस समय के योग्य था । परन्तु आज स्थिति बिलकुल बदल गई है। दुनिया के किसी भी धर्म का तत्त्व कैसा ही गंभीर क्यों न हो, पर अब वह यदि उस धर्म की संस्थाओं तक या उसके पण्डितों तथा धर्मगुरुत्रों के प्रवचनों तक ही परिमित रहेगा तो इस वैज्ञानिक प्रभाव वाले जगत में उसकी कदर पुरानी कब्र से अधिक नहीं होगी। अनेकान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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