Book Title: Anekantvada ki Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ १५० जैन धर्म और दर्शन फिर भी उन्होंने अनेकान्त-दृष्टि का स्वरूप स्थिर करने में अथवा उसके विकास में कुछ न कुछ भाग जरूर लिया है, ऐसा पाया जाता है । यह सब होते हुए भी उपलब्ध-साहित्य का इतिहास स्पष्ट रूप से यही कहता है कि २५०० वर्ष के भारतीय साहित्य में जो अनेकान्त-दृष्टि का थोड़ा बहुत असर है या खास तौर से जैन-वाड्मय में अनेकान्त-दृष्टि का उत्थान होकर क्रमशः विकास होता गया है और जिसे दूसरे समकालीन दार्शनिक विद्वानों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किसी न किसी रूप में अपनाया है उसका मुख्य श्रेय तो भगवान् महावीर को ही है; क्योंकि जब हम आज देखते हैं तो उपलब्ध जैन-प्राचीन ग्रन्थों में अनेकान्त दृष्टि की विचारधारा जिस स्पष्ट रूप में पाते हैं उस स्पष्ट रूप में उसे और किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं पाते। नालंदा के प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठ के प्राचार्य शान्तरक्षित अपने 'तत्त्वसंग्रह अन्य में अनेकान्तवाद का परीक्षण करते हुए कहते हैं कि विप्र-मीमांसक, निग्रंथ जैन और कापिल-सांख्य इन तीनों का अनेकान्तवाद समान रूप से खण्डित हो जाता है। इस कथन से यह पाया जाता है कि सातवीं-आठवीं सदी के बौद्ध श्रादि विद्वान् अनेकान्तवाद को केवल जैन-दर्शन का ही वाद न समझते थे किन्तु यह मानते थे कि मीमांसक, जैन और सांख्य तीनों दर्शनों में अनेकान्तवाद का . श्राश्रयण है और ऐसा मानकर ही वे अनेकान्तवाद का खण्डन करते थे । हम जब मीमांसक दर्शन के श्लोकवार्तिक आदि और सांख्य योग दर्शन के परिणामवाद स्थापक प्राचीन ग्रन्थ देखते हैं तो निःसन्देह यह जान पड़ता है कि उन ग्रन्थों में भी जैन ग्रन्थों की तरह अनेकान्त-दृष्टि मलक विचारणा है । अत. एव शान्तरक्षित जैसे विविध दर्शनाभ्यासी विद्वान् के इस कथन में हमें तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि मीमांसक, जैन और कापिल तीनों दर्शनों में अनेकान्तवाद का अवलम्बन है। परन्तु शान्तरक्षित के कथन को मानकर और मीमांसक तथा सांख्य योग दर्शन के ग्रन्थों को देखकर भी एक बात तो कहनी ही पड़ती है कि यद्यपि अनेकान्त-वृष्टि मीमांसक और सांख्य योग-दर्शन में भी है तथापि वह जैन दर्शन के ग्रन्थों की तरह अति स्पष्ट रूप और अति व्यापक रूप में उन दर्शनों के ग्रन्थों में नहीं पाई जाती। जैन-विचारकों ने जितना जोर और जितना पुरुषार्थ अनेकान्त दृष्टि के निरूपण में लगाया है, उसका शतांश भी किसी दर्शन के विद्वानों ने नहीं लगाया । यही कारण है कि आज जब कोई 'अनेकान्तवाद' या 'स्याद्वाद' शब्द का उच्चारण करता है तब सुननेवाला विद्वान् उससे सहसा जैन-दर्शन का ही भाव ग्रहण करता है। आजकल के बड़े-बड़े विद्वान् तक भी यही समझते हैं कि 'स्याद्वाद' यह तो जैनों का ही एक वाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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