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अनेकान्त
[ वर्ष
आज यह समयसार आठवीं वार पढ़ा जा रहा है तब यह समयसार शुद्धात्मतत्त्वको बसलाकर तत्त्वके -सभामें प्रवचनरूपसे आठवीं बार पढ़ा जा रहा है वियोगको भुला देता है और निश्चय स्वभावको प्रकट फिर भी यह कुछ अधिक नहीं है। इस समयसारमें करता है। ऐसा गढ-रहस्य भरा हश्रा है कि यदि इसके भावोंको समयसारका प्रारम्भ करते हए श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीवनभर मनन किया जाय तो भी इसके भाव पूरे देवने प्रारम्भिक मङ्गलाचरणमें कहा है कि- 'वंदित्त प्राप्त नहीं किये जा सकते। केवलज्ञान होनेपर ही सव्वसिद्ध अनन्त सिद्ध भगवन्तोंको वंदना करता समयसारके भाव पूरे हो सकते हैं। समयसारके
हूं, सब कुछ भूलकर अपने प्रात्मामें सिद्धत्वको स्थाभावका आशय समझकर एकावतारी हुआ जा सकता
पित करता हूं। इस प्रकार सिद्धत्वका ही आदर किया है। समयसारमें ऐसे महान् भाव भरे हुए हैं कि है। जो जिसकी बंदना करता है उसे अपनी दृष्टिमें श्रतकेवली भी अपनी वाणीके द्वारा विवेचन करके
आदर हुए विना यथार्थ वन्दना नहीं हो सकती। उसके सम्पूर्ण सारको नहीं कह सकते। यह प्रन्था
अनन्त सिद्ध हो चुके हैं, पहिले सिद्ध दशा नहीं धिराज है, इसमें ब्रह्माण्डके भाव भरे हुए हैं। इसके थी और फिर उसे प्रगट किया, द्रव्य ज्योंका त्यों स्थित अन्तरङ्गके श्राशयको समझकर शुद्धात्माकी श्रद्धा ज्ञान- रहा. पर्याय बदल गया, इस प्रकार सब लक्ष्य में लेकर स्थिरताके द्वारा अपने समयसारको पूर्णता की जा अपने श्रात्मामें सिद्धत्वकी स्थापना की है, अपनी सकती है, भले ही वर्तमानमें विशेष पहलुओंसे जानने- सिद्ध दशाकी ओर प्रस्थान किया है। मैं अपने का विच्छेद हो; परन्तु यथार्थ तत्त्वज्ञानको समझने
आत्मामें इस समय प्रस्थान-चिह्न स्थापित करता हूं योग्य ज्ञानका विच्छेद नहीं है। तत्त्वको समझनेकी और मानता है कि मै सिद्ध हं अल्पकालमें सिद्ध होने शक्ति अभी भी है जो यथार्थ तत्त्वज्ञान करता है उसे वाला हूँ; यह प्रस्थान-चिह्न अब नहीं उठ सकता; मैं एकावतारीपनका नि:सन्देह निर्णय हो सकता है। सिद्ध ऐसी श्रद्धाके जम जानेपर आत्मामें से
भगवान कुन्दकुन्दाचायने महान् उपकार किये हैं। विकारका नाश होकर सिद्ध भाव ही रह जाता है। यह समयसार-शास्त्र इस कालमें भव्यजीवोंका महान् अब सिद्धके अतिरिक्त अन्य भावोंका आदर नहीं है आधार है। लोग क्रियाकाण्ड और व्यवहारके पक्ष- यह सनकर हां करनेवाला भी सिद्ध है। मैं । पाती हैं, तत्त्वका वियोग हो रहा है, और निश्चय और तू भी सिद्ध है-इस प्रकार आचार्यदेवने सिद्धत्व स्वभावका अन्तर्धान हो गया है-वह ढक गया है; से ही मांगलिक प्रारम्भ किया है।
तत्व.चर्चा
शंका समाधान
[कितने ही पाठकों व इतर सजनोंको अनुसन्धानादि-विषयक शंकाएँ पैदा हुआ करती हैं और वे कभी कभी उनके विषयमें इधर उधर पूछा करते हैं। कितने हो को उत्तर नहीं मिलता और कितनोंको संयोगाभावके कारण पूछनेको अवसर ही नहीं मिलता, जिससे प्राय: उनकी शंकाएँ हृदयको हृदयमें हो विलीन हो जाया करती हैं और इस तरह उनकी जिज्ञासा अतृप्त हो बनी रहती है। ऐसे सब सज्जनोंकी सविधा और लाभको दृष्टिमें रखकर 'अनेकान्त' में इस किरणसे एक 'शंका समाधान' स्तम्भ भी खोला जा रहा है जिसके नीचे यथासाध्य ऐसी सब शंकाओंका समाधान रहा करेगा। आशा है इससे सभी पाठक लाभ उठा सकेंगे। -सम्पादका